डॉ. स्वतंत्र रिछारिया
याद कीजिए अभी कुछ साल पहले लेंडलाइन फोन के समय में जब मोबाइल का अविष्कार नहीं हुआ था। तब आपको कितने नंबर याद हुआ करते थे। घर, रिश्तेदार, खास दोस्त, टेलीफोन एक्सचेंज, बिजली आॅफिस, हॉस्पिटल और भी ना जाने कितने, और अब आप सोचिए आज अपको कितने मोबाइल नंबर याद हैं, कुछ लोग तो परिवार के सदस्यों का छोड़िए, स्वयं के मोबाइल के दूसरे स्लॉट वाले सेकेंड नंबर तक को याद नहीं रख पाते हैं। तो ऐसा क्या हुआ है जो सिर्फ 10-12 सालो में हम इतना भूलने लगे हैं।
मानव के जैविक उद्विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर पता चलता है कि मानव शरीर में अनेक अवशेषी अंग जैसे पूंछ की हड्डी (कोक्सीक्स), अपेंडिक्स, अक्कल दाढ़ एवं साइनस आदि होते हैं, जिनका वर्तमान में हमारी शारीरिक गतिविधियों के संचालन में कोई उपयोग नहीं है। कुछ हजार साल पहले इंसानों ने बदली हुयी वातावरणीय परिस्थियों और जीवन-शैली के कारण इनका उपयोग कम करते हुये बंद कर दिया। जिससे धीरे-धीरे यह अंग हमारे शरीर से लुप्त हो गए, और अब सिर्फ इनके अवशेष ही हमारे शरीर में मौजूद हैं।
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जिस प्रकार जीवविज्ञान मानव अंगों के कार्यशील या उपयोगी नहीं होने पर विलुप्ति की बात कहता है, इसी प्रकार मनोविज्ञान भी मानव के व्यक्तित्व विकास और समाजीकरण के संबंध में महत्वपूर्ण अवधानाएं प्रस्तुत करता है। यदि किसी सामाजिक व्यवहार, आदत या संचार प्रक्रिया का उपयोग लंबे समय तक नहीं करें तो धीरे-धीरे उस सामाजिक व्यवहार या आदत को मनुष्य भूल जाता है, या फिर उसे करने में सहज नहीं रहता। किसी विशेष सामाजिक प्रक्रिया तथा सामाजिक व्यवहार को लंबे समय तक नहीं करने पर मनुष्य के व्यक्तित्व में निश्चित ही कुछ बदलाब होते हैं, जो उसके व्यवहार और अभिव्यक्ति को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।
वैसे तो आज तेजी से दौड़ती-भागती जिंदगी में लोगों को ज्यादा किसी से मिलने और संवाद करने का वक्त ही नहीं मिलता, लेकिन जितना भी वक्त हमें मिलता है, उसमें हम किसी से मिलने या बात करने की जगह किसी मोबाइल गेम, सोशल मीडिया एप या फिल्म देखकर बिताना ज्यादा पसंद करते हैं। क्योंकि आपने महसूस किया होगा कि आजकल समान्यत: आमने-सामने की बातचीत करने पर दस मिनट के भीतर ही बातचीत आरोप-प्रत्यारोप और वैचारिक असहिष्णुता में तब्दील हो जाती है। क्योंकि इस वर्चुअल आभासी दुनिया में हम ज्यादा एकाकी, आत्ममुग्ध से होते जा रहें हैं, जिससे प्रत्यक्ष सम्प्रेषण की क्षमता कम हो रही है। ज्यादा डिजिटल होने से प्रत्यक्ष संवाद के लिए हमारे पास ऐसे संतुलित शब्दों और वाक्यों की कमी होती जा रही है, जो मधुर वार्तालाप या संवाद में सहायक हो। साथ-साथ हमारे सुनने की खासकर अपने विचारों के विपरीत सुनने की क्षमता में कमी आयी है।
मानव की शरीर संरचना में परिवर्तन हजारों वर्ष की कठिन उद्विकासीय प्रक्रिया के फलस्वरूप होता है, जबकि मानव व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष का विकास एवं परिवर्तन थोड़े समय में ही परिलक्षित होने लगते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, सामाजिक सम्बन्धों के द्वारा बहुत कुछ सीखते हुए ही मनुष्य अपनी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी करता है। अत: कह सकते हैं यह सामाजिक संबंध आवश्यक या महत्वपूर्ण ही नहीं अपितु मानव जीवन के विकास और निरंतरता के लिए अपरिहार्य भी हैं।
व्यक्तित्व का विकास एवं निर्धारण समाज की संरचना में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक वातावरण तथा उपलब्ध संसाधनों की संयोजनात्मक जटिल प्रक्रिया द्वारा होता है। समाजीकरण और व्यक्तित्व विकास के द्वारा ही मनुष्य को विचार करने, अभिव्यक्त करने, भावनाओं को प्रकट करते हुये सामाजिक व्यवहार को निभाने की क्षमता एवं समझ प्राप्त होती है। यानि सामाजिक संरचना में जिस प्रकार की सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक प्रक्रियाएं, सामाजिक वातावरण एवं उपलब्ध संसाधन होंगे मनुष्य का व्यक्तित्व और व्यवहार उसी अनुरूप निर्धारित होगा।
वर्तमान सदी को संचार की सदी कहा जाता है, विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप अभूतपूर्व तीव्रगति वाले संचार संसाधनों की उपलब्धता के समय में हम जी रहे हैं। आज की संचार तकनीकों ने समस्त मानव समाज को बड़े गहरे रूपों में प्रभावित किया है। मनुष्यों के जीवन से संबन्धित सभी पक्ष परिवर्तित होते हुए एक नए रूप में स्थापित हो रहे हैं। संचार क्रांति और उपलब्ध संसाधनों ने मानव के व्यवहार को भी अत्यधिक प्रभावित किया है। यदि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम इस संचारक्रांति वाले समाज की प्रक्रियाओं का अध्ययन एवं विश्लेषण करें, तब हम जान पाएंगे कि इतने संचार साधनों की मौजूदगी के बाद भी सामाजिक सम्बन्धों में संवादहीनता के स्थिति उत्पन्न हो रही है। जिसके परिणाम वैयक्तिक और सामाजिक विघटन के रूप में सामने आ रहे हैं।
मनुष्य की जीवन-शैली आज मल्टीमीडिया उपकरणों, सोशल मीडिया, गेजेट्स और इंटरनेट के जाल में बुरी तरह से जकड़ चुकी है। भले आज फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप्प के माध्यम से वर्चुअल/आभासी संचार खूब हो रहा है, लेकिन फिर क्यों लोग एकाकीपन, डिप्रेशन, तनाव का शिकार हो रहे हैं। आज आस-पास लोगों की इतनी उपस्थिति/भीड़ होने के बाद भी लोग अकेलापन महसूस करते हैं।
मनुष्य की जीवनशैली और उसके व्यवहार पर सोशल मीडिया, इंटरनेट और मोबाइल के होने वाले नकारात्मक प्रभाव का विश्लेषण करने वाले अनेक तथ्यात्मक शोध किए गए हैं। इन शोध के अनुसार मल्टीमीडिया उपकरणों और इंटरनेट की आभासी दुनिया ने मानव के सोचने समझने और उसके व्यवहार करने के तरीके को बड़े ही नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। अगर लोगों ने इस वर्चुअल संचार के अत्याधिक बेवजह प्रयोग को अपने जीवन में कम नहीं किया, तो इसके फलस्वरूप और अधिक गंभीर स्वास्थ्य एवं मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा
आज के डिजिटल संचार और मनोरंजन में फेसबुक और इन्स्टाग्राम रील का चलन एकदम से बढ़ा है, बच्चों से लेकर उम्रदराज सभी लोग इसके दीवाने हैं. अगर मोबाइल पर बिताए हुए समय का विभाजन करें तो सबसे ज्यादा समय इन रील का ही आएगा. जिस प्रकार भोजन की पसंद में जंक फूड का चलन तेजी से बढ़ा और आज जंक फूड बहुत लोकप्रिय हो गया है. ऐसे ही इन रील य शॉर्ट्स को मनोरंजन का ‘जंक मनोरंजन’ कहा जा सकता है.
सुबह उठने के साथ ही सामान्यत: लोग रील्स देखना शुरू कर देते हैं. आज शायद ही कोई ऐसा हो जो इससे अछूता हो. फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर रील्स देखते देखते कब घंटों गुजर जाते हैं ये पता नहीं चलता है. लेकिन धीरे-धीरे बहुत लोग इसके एडिक्शन के शिकार हो चुके हैं. बहुत सारे मनोविश्लेषण करने वाले शोध से यह पता चला है की इन रील को ज्यादा लंबे समय तक देखने से मानव स्वाभाव में कई प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं, जो शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में खतरनाक हैं.
इन्ही डिजिटल मनोरंजन की दुनिया का एक तेजी से लोकप्रिय होने वाला क्षेत्र है डिजिटल गेमिंग का, आज बच्चे और युवा आउटडोर खेलों से ज्यादा गेम अपने फोन, लैपटॉप या स्मार्ट टीवी पर खेलते हैं. डिजिटल गेमिंग की यह दुनिया बड़ी तेजी से मानव के चित्त को अपना शिकार बनाती है. डिजिटल/आॅनलाइन गेम के कन्टेन्ट का थोडा गहराई से अवलोकन करें, तो पता चलता है कि इन डिजिटल गेम का ज्यादातर विषय हिंसक और तीव्र उत्तेज्जना पैदा करने वाला होता है. जब बच्चे इन गेम का निरंतर प्रयोग करते रहते हैं तो उनका अवचेतन मन उन गेम के पात्रो (हीरो/विलेन) के व्यवहार, बोलचाल आदि को आत्मसात कर लेता है.
कई अभिभावक अपने बच्चे के बदलते व्यवहार के कारण परेशान रहते है, अभिभावकों के द्वारा कुछ बच्चों सम्बन्धी समस्याएं सामान्य रूप से सुनी जा सकती हैं, जैसे अब यह चिड़चिड़ा सा हो गया है. इसको बहुत गुस्सा आने लगी है, इसको किसी से मिलना या बाहर जाना अच्छा ही नहीं लगता. बच्चों के व्यवहार सम्बन्धी उपरोक्त सभी बदलाव के लिए कुछ हद तक आॅनलाइन गेम की आदत ही जिम्मेदार होती है.
अभी कुछ समय पहले एक डिजिटल गेम ने भारत सहित पूरी दुनिया में एक डिजिटल आंतक को फैलाया था जिसके शिकार कई मासूम बच्चे हुए थे. ‘ब्लू ब्ह्येल’ नाम के गेम के प्रभाव से कई बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी. कई मनोवैज्ञानिक अध्ययन के बाद यह कहा जा सकता है कि डिजिटल और आॅनलाइन गेमिंग की दुनिया मनोरंजन से प्रारंभ होती है लेकिन यह एक एडिक्शन में बदल जाती है, जो बच्चों के कोमल चित्त को बडे नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है.
अभी कुछ समय से 10 से लेकर 15 साल के नाबालिग बच्चों द्वारा हत्या और यौन आपराधिक कृत्यों जैसी घटनाएं मीडिया के माध्यम से सुनने और पढने को मिली. जब बच्चों द्वारा किये गए इन अपराधों की तफ्तीश की गयी तो पता चला बच्चों ने यूट्यूब या अन्य डिजिटल प्लेटफार्म पर देखी गयी सामग्री से अपराध करने की प्रेरणा प्राप्त की थी. बच्चों द्वारा किये गए यह अपराध डिजिटल मनोरंजन की एक बहुत भयाभय और चिंतनीय तस्वीर पेश करते हैं.
आज भले लोग इंटरनेट, मल्टीमीडिया उपकरणों, सोशल मीडिया और गेजेट्स को जीवन के लिए अपरिहार्य मानते हों, पर वास्तविकता यह है कि यह आभासी संचार माध्यम परंपरागत प्रत्यक्ष आमने-सामने संचार के महत्व को कभी कम नहीं कर सकते हैं।
आॅनलाइन शिक्षण भी आज तेजी से लोकप्रिय होता एक आधुनिक शिक्षण माध्यम है। निश्चित ही आॅनलाइन शिक्षण प्रणाली ने अपनी भौतिक सीमा को समाप्त करने की क्षमता के कारण अनेक लोगों को लाभ पहुंचाया है। आज दूरदराज के छात्र भी आॅनलाइन शिक्षण के माध्यम से लाभनन्वित हो रहे हैं। लेकिन यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि आॅनलाइन शिक्षण उपयोगी होने के साथ-साथ कई प्रकार की चुनौतियां भी प्रस्तुत करता है, जिन पर विचार किया जाना बहुत ही आवश्यक है।
अमेरिका और यूरोप में आॅनलाइन शिक्षण पर हुए अनेक शोध बताते हैं कि परंपरागत शिक्षण के स्थान पर आॅनलाइन शिक्षण पद्धति का ज्यादा प्रयोग बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत ही गंभीर रूप से प्रभावित करता है। आॅनलाइन शिक्षण से बच्चे सामूहिकता, परस्पर सहयोग की भावना, सहिष्णुता, प्रत्यक्ष प्रेम, मित्रता, संवाद कौशल, अभिव्यक्ति आदि अनेक बातों को सीखने से वंचित रह जाते हैं। इन कौशलों का अभाव बच्चों के आने वाले जीवन में निश्चित ही अनेक प्रकार की मानसिक और सामाजिक समस्याएं उत्पन्न करेगा।
चेंग, जेनेवी, और युआन (2014) के द्वारा किए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि जीवन में मोबाइल उपकरणों की अत्यधिक उपस्थिति ने सोशल इंटरेक्शन/संवाद की गुणवत्ता को बहुत नकारात्मक रूप में प्रभावित किया है। प्रबालस्कि और बेंसटेन (2012) ने अपने अध्ययन पाया कि मोबाइल और संचार उपकरणों ने मानव सम्बन्धों की संरचना को आंतरिक रूप से बदलने का कार्य किया है। सामाजिक संबंध अब अनौपचारिक न होकर सिर्फ औपचारिक या प्रोफेशनल रिलेशन ज्यादा हैं।
ब्रिगनल और वेन वेली (2015) ने युवाओं के बीच संचार प्रौद्योगिकी एवं सोशल मीडिया के प्रभावों का विश्लेषण किया, इस अध्ययन के अनुसार शिक्षा, संचार और मनोरंजन में इंटरनेट के व्यापक उपयोग के कारण युवाओं के बीच आमने-सामने की बातचीत में उल्लेखनीय कमी आयी है। यदि किशोर वर्ग एवं युवाओं द्वारा इसी प्रकार निरंतर रूप से सोशल मीडिया, इंटरनेट आधारित संचार का प्रयोग किया गया, तो आने वाले समय में युवाओं को अपेक्षित सामाजिक कौशल के अभाव और समाज में अभिव्यक्ति की कमी संबंधी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।
सामाजिक व्यवस्था के सुचारु संचालन एवं विकास के लिए यह आवश्यक होता है, कि जब कोई समस्या सामाजिक प्रणाली में उत्पन्न हो तो तुरंत ही समस्या के निवारण हेतु कार्य प्रारम्भ किया जाए। इंटरनेट, सोशल मीडिया की आभासी दुनिया और मल्टीमीडिया उपकरणों के अत्यधिक प्रयोग के नकारात्मक प्रभावों का परिणाम हमारे सामने है। इसलिए अब समय आ गया है कि समाज को निर्देशित एवं संचालित करने वाली सामाजिक संस्थाओं को मानव खुशहाली और विकास के लिए अपनी प्राथमिकताओं को समझते हुए, अपने सामाजिक मूल्यों सामाजिक मानदंडों, नियमों को पुनर्भाषित करना होगा। अन्यथा इस वैज्ञानिक युग में तकनीकी विकास के स्तर पर तो हम आगे बढ़ते जाएगें पर शायद भावनात्मकता, समाजिकता और मानवीय मौलिक गुणों के स्तर पर हम बहुत पीछे छूट चुके होंगे।
इस समस्या के समाधान हेतु स्कूल और परिवार एक बड़ी आवश्यक और महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। स्कूली पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम का निर्माण करने वाली एकेडमिक संस्थाओं को सउद्देश्य ऐसी शिक्षण गतिविधियों और शैक्षिक क्रियाकलापों को शिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित करना होगा, जिनसे बच्चों को विषयक ज्ञान के साथ-साथ स्कूल में सामाजिक एवं मानसिक विकास हेतु आवश्यक अवसर उपलब्ध हों। शिक्षक कक्षाओं में विषय शिक्षण के साथ ऐसी गतिविधियां या प्रक्रियाएं भी बच्चों के साथ अनिवार्यता करें, जिनसे बच्चों में सामूहिकता, परस्पर सहयोग की भावना, सहिष्णुता, प्रत्यक्ष प्रेम, मित्रता, संवाद कौशल, अभिव्यक्ति आदि गुणों और कौशलों का विकास भी हो पाए।
परिवारों में अभिभावकों और वयस्कों को ध्यानपूर्वक बच्चों एवं किशोर वर्ग के सामने ऐसा व्यवहार प्रस्तुत करना होगा, जिससे वह समाजीकरण और परवरिश काल में सामाजिक सम्बन्धों और प्रत्यक्ष वातार्लाप/संवाद के महत्व को समझते हुए इन अपरिहार्य सामाजिक व्यवहारों और प्रक्रियाओं को आत्मसात कर पाए। घरों में प्राय: अभिभावकों और वयस्कों द्वारा बच्चों के लिए मोबाइल, टीवी या सोशल मीडिया के अत्याधिक प्रयोग करने पर भला-बुरा कहते हुए, सैद्धांतिक ज्ञान का संभाषण दैनिक कार्य के रूप में किया जाता है, जबकि घर में स्वयं वयस्क दिन भर मोबाइल, टीवी या सोशल मीडिया पर वही काम करते हैं, जिनके लिए बच्चों को सुबह से शाम मना किया जाता है। बच्चों की सीखने की प्रक्रिया और व्यक्तित्व निर्माण संबंधी विभिन्न अध्ययनों का मानना है कि बच्चे हो या किशोर उन बातों को जल्दी सीखते हुए आत्मसात करते हैं, जिनको वयस्कों और शिक्षकों द्वारा अपने व्यवहार में स्वयं आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शेष बड़ों द्वारा दिए जाने वाले सिर्फ सैद्धांतिक या नैतिक ज्ञान को बच्चे ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते हैं।
हमें यह समझना होगा कि विज्ञान पर आधारित तकनीकी प्रगति तभी तक सार्थक है, जब तक वह मानव के विकास और खुशहाली में सहायक है। मानव के मौलिक मानवीय गुणों, क्षमताओं को और आवश्यकताओं को बिना समझे, एकांगी तकनीकी और संचार साधनों का विकास एवं उपयोग मनुष्य के सामाजिक और मानसिक दोनों स्तर पर घातक होगा। निसंदेह आज तकनीक, इंटरनेट आधारित संचार और सोशल मीडिया की अपनी महत्ता और आवश्यकता है।
लेकिन इनके साथ सामूहिकता का भाव, परस्पर सहयोग की भावना, सहिष्णुता, प्रत्यक्ष प्रेम, मूर्त मित्रता, संवाद कौशल और अभिव्यक्ति आदि का भी हमेशा अपना विशिष्ट महत्व सर्व स्वीकार्य हैं। इसलिए बच्चों सहित मनुष्यों के संतुलित सर्वांगीण विकास और खुशहाली हेतु तकनीक और प्राकृतिक मानवीय गुणों तथा सामाजिक प्रक्रियाओं में उचित समन्वय ही श्रेयकर मार्ग है।