सत्येन्द्र प्रकाश
जी हां, फ़िलवक़्त मानस पटल पर जो नाम ‘उदय’ हो रहा है, वह यही है। इससे ‘सर्वोदय’ की पूरी उम्मीद थी यह भी सही है। क्योंकि देश की सबसे बड़ी अदालत की सबसे बड़ी कुर्सी पर करीब दो साल पहले विराजमान हुए जज साहब के नाम से सच्चाई, ईमानदारी की कसमें खाई जाती थीं। मी-लार्ड की शान में सचमुच के कसीदे पढ़े जाते थे, न कि सिर्फ़ रस्में निभाई जाती थीं। आते ही कुछ ऐसे चौके-छक्के लगाए कि विपक्षी जनपक्षी, वकला साहबान और याचिकाकर्ता यानी अपीलान सब बल्लियों उछल रहे थे। कि अब ‘न्यायालय का कर्तव्य है कि सौ दोषी छूट जाएं तो हर्ज नहीं, लेकिन किसी निर्दोष को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए’, ‘न्याय होना ही जरूरी नहीं, न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए’, ‘वादकारी का हित सर्वोच्च है’ जैसे संविधान की मंशा उजागर करने वाले सूत्र धरातल पर उतरते दिखेंगे। इतना ही नहीं, चर्चा की पींगें इस क़दर बढ़ीं कि समकक्षी- सहयोगी समेत मातहत अदालतों के जज भी सुप्रीम खलीफा से कुछ सीखेंगे। पर, वही लोग मनाने लगे अफसोस! उनके कृत्यों से उड़ने लगे सिविल सोसायटी के होश! बयानों पर चढ़ी, दीवारों पर टंगी, किताबों में धरी रह गई सीख। भीख मांगते रहे लोग न्याय की। उधर आधे से ज्यादा देश में बिना मांगे मिली ‘फैसला ऑन स्पॉट’ नीति बुलडोजर अन्याय की। ‘उत्तम'(?) प्रदेश से हुआ यह दुर-‘योगी’ (अ)शुभारंभ। मध्यम व अन्य सूबों में फैला रायता की तरह शामिल कर वजीर-ए-आला का दंभ। अदालतों को धता बताते जारी रहा भगवा वजीरों का कारनामा। अशफ़ाक/किदवई के वंशजों, गांधी के ‘हरिजनों’ पर रहा खास निशाना। और संजीव भट्ट शरजील, गुलफिशा, उमर खालिद, बिल्किस बानो वगैरह के मामलों में बस बहाने पर बहाना। लेकिन कारवां (अंग्रेजी) में सौरभ दास ने खोल दिया ढेर सारा अनदेखा-अनसुना अफसाना। थैंक्स टू सोशल मीडिया जिससे अनजानों ने भी इसे जाना। हालांकि अदालत-ए-बुर्ज के खलीफा-ए-अव्वल ईमानदारी के घूंघट की आड़ में चुग रहे थे लुटियन्स के नवाब का दाना। यह बकने की बोकरादी का दुस्साहस मा-बदौलत नहीं कर सकते, हैसियत की लघुता आ रही आड़े। इसलिए एक स्वतंत्र पत्रकार, एनएसआई से संबद्ध विचारक का सहारा लेंगे, नाम है सुभाष ग़ाताड़े। वे अपने एक आलेख में प्रकट करते हैं आशंका, सत्ताधारी बहुत पहले से न्यायपालिका को अपनी हिंदुत्व- बर्चस्ववादी परियोजना में शामिल कर लगाना चाहते हैं देश के लोकतन्त्र की धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, समाजवाद जैसी संविधान की मंशाओं को लंका। उनका आधार है कुछ दिनों पहले गुजरात के एक ‘लॉ लाइव प्रोग्राम’ में दिया गया विधि-विशेषज्ञ और प्रैक्टिसनर डॉ. मोहन गोपाल का व्याख्यान। उन्होंने साफ़ कहा कि देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की मंशा वाले उसे(संविधान को) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक ‘हिंदू दस्तावेज’ के रूप में व्याख्या करके अमल में लाना चाहते हैं, न कि जड़ से हटाना चाहते हैं संविधान।
अगली पंक्ति से पहले ये शे’र यहां घुसने की कोशिश कर रहा है, तो आप की इजाज़त से : –
गीत ‘वन्देमातरम’ गाते हैं वो।
मीठा-मीठा सितम ढाते हैं वो।…
इसलिए डॉ. मोहन के मुताबिक, गद्दीनशीनों की दो-स्टेपी योजना में पहले स्टेप पर थी ऐसे जजों की तैनाती, जो दें आस्थावादी फैसला, जाकर संविधान से परे। दूसरे पर यह कि जो संविधान के बजाय धर्मशास्त्र में कानून के स्रोत ढूंढें, बन धर्मशास्त्री खरे। फिर भारत को धर्मतन्त्र घोषित करना हो जाएगा आसान। उसी किताब से निकाल लिया जाएगा राजतंत्र का जिन्न, बे-चारा हो जाएगा संविधान।
ध्यान दे, थोड़ा पीछे जाएंगे तो तय है इसकी बानगी पाएंगे। कर्नाटक में तब थी ‘उनकी’ सरकार। मन में थी (शायद) समुदाय-विशेष को चिढ़ाने की दरकार। फिर क्या, जल्द एक फरमान आया।–‘स्कूलों में प्रवेश नहीं पाएगी कोई छात्रा बुरकाधारी’– जब (अ)धर्मवादी कीड़ा कुलबुलाया। फिर झट से मर्यादा भूल, जैसे कोई शिष्य आज्ञाकारी, हाईकोर्ट ने भी उस पर मुहर लगाया।
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इन हरकतों का इतिहास गवाह है। भले ही, जिनकी करतूत थी, उन्हें न तब थी न अब कोई परवाह है। उनकी, ऐसी मंशा को चारचांद तब लगा, जब मुख्य न्यायाधीश बने मराठी मानुष, माननीय धनंजय यशवंत चंद्रचूड़। (आप चाहें तो हाथी के खाने के दांत और, दिखाने के और, को याद कर कह सकते हैं कथित हाथी बिना सूंड़।) यही चंद्रचूड़ सीजेआई कुछ दिन पहले भाषण देते हुए अपने गाँव में। ‘भक्तिपूर्ण सच’ उगल दिए थे उमड़े अपनों की छाँव में। गाताड़े के मुताबिक, उन्होंने वहां कहा कि ‘अहम क़ानूनी फैसलों में वह संविधान से कम, अपने देवता की सलाह से (ज़्यादा) फैसले लेते हैं।’ यानी फैसले की नाव संविधान के नहीं, आस्था के पतवार से खेते हैं। अब जब मी-लॉर्ड चंद्रचूड़ ने खुद स्वीकारा है कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद – राम जन्मभूमि विवाद का फैसला (जो सालों अज्ञात रहा) उन्होंने ही लिखा था ‘अपने राम’ की सलाह से। ऐसे में, नॉन बायलॉजिकल यानी ‘अवतार’ के साथ ‘गणपति बप्पा मोरया’ गाने के बाद लोग इशारे में ही सही, कहें, कि ‘इनके राम’ यही हैं, तो कैसे बचेंगे इस अफवाह (?) से / इतिहास के सच और अपनी चाह से। गोदी वालों को भले सूंघ गया हो सांप, यानी गंवई अवधी में फेटार। पर खुलकर बोल रहे एनके सिंह, अंजुम, वानखेड़े, अंबुज जैसे इंडिया के ‘लोकहित’कारी पत्रकार। चंद्रचूड़ की जगह लेने आने वाले, नए-पुराने जज अर्थात बेंच और अधिवक्तागण यानी बार। गणेश चतुर्थी पर न्यायपालिका के नंबर वन और कार्यपालिका के नंबर वन के मिलन को ‘नॉन बायलॉजिकल प्रधानमंत्री और ईश्वर से संवाद करता मुख्य न्यायाधीश’ की अद्भुत जुगलबंदी करार देते हुए आमजन की मुखर पक्षधर, कानूनविद सुश्री इंदिरा जयसिंह ने कहा कि इस घटना ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच विभाजन के सिद्धांत का मखौल उड़ाया है। तो, स्वनामधन्य प्रशांत भूषण ने इस हरक़त पर टिप्पणी करते हुए कल की ‘न्यायपालिका को गलत संदेश दिया’ कहके सवाल उठाया है। कुर्सी छूटने की उलटी गिनती में उलझे मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर और जगन्नाथपुरी ‘मंदिर के ध्वज को सार्वभौमिकता की परंपरा की नुमाइंदगी करने वाला’ बताया। तो, बुलडोजर (अ)न्याय पर लगभग चुप्पी लगाया। ऐसे में, साफ़ जाहिर है कि आमजन के लिए उनकी नज़र कितनी ईमानदार और पैनी है। शायद इसीलिए मी- लॉर्ड को ‘इतिहास में किस तरह याद किए जाएंगे’ इसकी बेचैनी है। खैर, रिवाजतन हमारी शाब्दिक शुभकामनाएं, वो पक्का ‘अपने कृतित्व के सच’ के साथ ही इतिहास में जाएं।….आमीन! (परजा खुश, राजा गमगीन?)