अक्कू श्रीवास्तव
Delhi: पुरानी दिल्ली के इलाके में रमजान के पाक महीने में लगने वाली रौनक के बारे में पढ़ते- सुनते आए हैं। हर साल कोशिश करते थे कि एक बार उस रौनक के नजरे लिए जाएं। लेकिन संभव नहीं हो पा रहा था। इस बार भी महीना पूरा होने को आ रहा था लेकिन आखिरी जुमे के बस के दो दिन पहले यह इच्छा फिर बलवती हुई और हम पहुंच गए। दिल्ली के तुर्कमान गेट से अपना यह सफर शुरू करना था। शुरुआत गलियों से हुई जहां की शाम जवां हो चुकी थी और लोग धीरे-धीरे बाजार की ओर रुख कर रहे थे, अपनी ईद की तैयारी को अंजाम तक पहुंचाने के लिए।
कई पुरानी खाने – पीने की दुकानें देखने को मिली, जहां कुछ मजलूम लोग इस इंतजार में सड़क किनारे बैठे थे कि कब उन्हें भी कुछ खाने को मिल जाए।( कुछ एक छोटी दुकानों ने तो बाकायदा बोर्ड लगा रखा था कि यहां 40 या ₹50 में गरीबों को खाना खिलाया जाता है। यहीं पर चितली कवर दरगाह भी दिखी। अच्छी खासी भीड़ के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए धीरे-धीरे हम आगे उस बाजार में थे जहां खाने – पीने की छोटी-छोटी अनेक और बहुत पुरानी से पुरानी और नई से नई दुकानें सजी हुई थी।
इत्र की भी कई दुकानें देखने को मिली। चमक छल्ले वाली दुपल्ली टोपिया ,चूड़ियां, कानों के बुंदे हार के भी अलग-अलग स्टॉल सजे हुए थे। कोई इन्हे रेहड़ी पर बेच रहा था तो कोई कंधे पर बिसाती की तरह। पता चला कि आगे एक गली मुड़ जाती है उस ओर जहां स्त्रियों के साजा सिंगार, पहने ओढ़ने का साजोसामान बहुतायत से मिलता है। ऑनलाइन शॉपिंग और रेडीमेड कपड़ों के इस दौर में भी अभी भी कुछ लोग कपड़ा लेकर अपनी पसंद के सूट गरारे सिलवा कर और गोटा किनारी लगवा कर पहनने में रुचि रखते हैं। खासतौर से वह लोग जब अपने बच्चों या भाइयों की एक तरीके की ड्रेस सिलवाना चाहते हों।
आगे दूसरा रास्ता जाता है खाने पीने के बाजार की ओर। यहां सबसे पहले हमने लुत्फ़ लिया शरबत ए मोहब्बत का यानी दूध में गुलाब का शरबत और उसमें कटे हुए तरबूज के टुकड़े। यह बेचने का अंदाज भी नया निराला और इंस्टा पर भी काफी मशहूर । यहां इंदौर नुमा नजारा भी दिखा। शरबत बेचने वाला युवा अरब शेख के लिबास में आधा किलो से ज्यादा सोना गले में पहने हुए सबको आकर्षित करने की कोशिश कर रहा था और वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग उसकी इंस्टा रील बना रहे थे और पुलिस की ओर से आवाज आ रही थी कि आप अपने पर्स और मोबाइल संभाल के रखें।
बताया गया बाजार में आने वाले आधे से ज्यादा लोग बाहरी होते हैं। मुस्लिम महिलाएं बुर्को में भी चुहल करते हुए भी देखी जा सकती थीं।.. और युवा तो इसे एक एडवेंचर के तरीके से मना रहे थे।
मटिया महल में जहां अधिकतर दुकानें मुस्लिम समुदाय की थी पर एक जैन साहब भी थे जो कई सालों से पुरुषों के कुर्ते पैजामे के लिए जाने जाते रहे हैं। उनकी एक और दुकान भी है। खासी मशहूर और बहुत वाजिब दाम के साथ फिक्स्ड प्राइस की बताई जाती है। लेकिन यहां काम करने वाले करने दुपल्ली टोपी लगाए अन्य सज्जन जैन साहब के साथ लगे हुए थे।
मांसाहार की भिन्न-भिन्न वैरायटी के साथ अलग-अलग तरह की पराठे शीरमाल,रोटियां बाकरखानी और बेकरी की भी कई दुकानें सजी हुई थी। एक दुकान पर केवल फ्राइड चिकन मिलता था लेकिन वहां के लिए भीड़ इतनी ज्यादा थी कि इंतजार करने वालों की लाइन बहुत लंबी थी। असलम चिकन की दुकान की खासियत यह थी कि जैसे आप सिनेमा घर में लाइन लगाकर टिकट लेते हैं वैसे ही यहां लाइन लगाकर अंदर जाने दिया जाता है और अंदर खड़े बाउंसर आपको विभिन्न टेबलों पर बैठाते हैं। कुल मिलाकर बाजार रौनक पर था और भीड़ पल पल बढ़ती जा रही थी यूं ही नहीं इसे खुशियों की ईद कहा जाता है क्योंकि हर किसी के चेहरे पर त्यौहार की खुशी साफ देखी जा सकती थी
कुछ देर बाद आगे जामा मस्जिद के आसपास भी रौनक बनी हुई थी। वापसी में हम लोग बाजार के पीछे उन तमाम मंदिर वाली गलियों के बीच से होकर आए जो 100 साल से भी अधिक पुरानी बताई जाती हैं। हमारे साथी अमानत मियां हमें बार-बार बता रहे थे कि यहां प्यार मोहब्बत खूब रहा है। तुर्कमान गेट की कहानी जितनी पुरानी है उतनी ही उसके साथ किस्से भी हैं।
बस यही दुआ की जा सकती है कि सब मिलकर रहें और ज्यादा से ज्यादा देश – समाज के बारे में सोचें। ईद मुबारक।