डॉ. राजाराम त्रिपाठी
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट-24 दो मायनों में अभूतपूर्व रहा. पहली तो यह कि देश के इतिहास में पहली बार किसी वित्त मंत्री ने 7 वीं बार बजट पेश किया है, हालांकि इस रिकॉर्ड के बनने से देश का क्या भला होने वाला है तथा इकोनॉमी पर क्या प्रभाव पड़ना है, यह अभी भी शोधकतार्ओं के शोध का विषय है. दूसरी यह कि कृषि की वर्तमान आवश्यकता के मद्दे नजर इस बजट में देश की खेती और किसानों के लिए ऐतिहासिक रूप से अपर्याप्त न्यूनतम राशि प्रावधानित की गई है.
यह गजब विडंबना है कि इस सबके बावजूद 2024-25 के बजट में विकसित भारत की नौ प्राथमिकताओं में कृषि को सर्वप्रथम स्थान पर रखने का दावा करने का ढोंग किया जा रहा है. इस बजट में घोषित योजनाएं और आवंटन न केवल अपर्याप्त हैं, बल्कि वे कृषि क्षेत्र में कोई भी वास्तविक सकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह से असमर्थ हैं.
कृषि बजट: गहन निराशा का कोहरा हुआ और भी घना: हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले’ बजट 2024 के संदर्भ में देश के किसानों के ऊपर यह लाइन बेहद सटीक बैठती है. कृषि व कृषि संबद्ध क्षेत्रों के लिए फरवरी 2024 के अंतरिम बजट में 1.47 करोड़ का प्रावधान किया गया था और वर्तमान बजट 1.52 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, जो बहुत ही मामूली बढ़ोतरी है. यह राशि देश के कृषि क्षेत्र की विशाल जरूरतों के मुकाबले ऊंट के मुंह में जीरा है. किसानों को बड़ी घोषणाओं और दीर्घकालिक सुधार योजनाओं की उम्मीद थी, लेकिन यह बजट उनकी उम्मीदों पर पानी फेरता दिखाई देता है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि तथा किसान पेंशन योजनाओं का दायरा तथा राशि समय के साथ बढ़ाने के बजाय कम होती जा रही है.पुरानी कृषि योजनाएं हों या नई योजनाएं किसी के लिए कोई बड़ा आवंटन नहीं है. किसानों का प्रीमियम हड़प कर निजी बीमा कंपनियों की बैलेंसशीट समृद्ध हो रही है, दूसरी ओर देश में प्रतिदिन बड़ी संख्या में मजबूर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इससे यह स्पष्ट है कि सरकार कृषि क्षेत्र के जरूरी कायाकल्प के प्रति बिल्कुल ही गंभीर नहीं है.
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कृषि शोध: आधे-अधूरे वादे , खतरनाक इरादे
बजट में कृषि शोध की समीक्षा और जलवायु अनुकूल किस्मों के विकास का वादा किया गया है, लेकिन इसके लिए कोई ठोस फंडिंग नहीं दी गई है. कृषि शिक्षा और शोध विभाग के लिए मात्र 9941.09 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में बेहद मामूली वृद्धि है. इस राशि से कृषि अनुसंधान में व्यापक सुधार की उम्मीद करना बेमानी है.
विशेषज्ञता के बिना जहाज का डूबना तय है
कृषि छात्रों तथा कृषि वैज्ञानिकों के साथ उन फैकल्टी की तुलना में सदैव पक्षपात होता है रहा है. ‘भारतीय कृषि सेवा की लंबे समय से मांग की जाती रही है. देश की कृषि योजनाओं का निर्माण व शीर्ष स्तरीय कार्यान्वयन कृषि विशेषज्ञों के बजाय आईएएस तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा निष्पादित किया जाता है. यहां हमारा मकसद प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के कार्य क्षमता पर प्रश्न उठना नहीं है. किंतु यह भी समझ ना होगा कि हवाई जहाज उड़ने वाले पायलट से अगर पानी का जहाज चलवाएंगे तो जहाज के डूबने की पर्याप्त संभावना है.
प्राकृतिक खेती : घटता बजट, खोखले दावे
गजब विडंबना है कि संसद में बजट प्रस्तुत करने के साथ अगले दो साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की योजना के कसीदे पढ़े जाते हैं , लेकिन इस कार्य के लिए मात्र 365 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जबकि पिछले साल इस कार्य के लिए 459 करोड़ रुपए का प्रावधान था, यानि कि पिछले साल की तुलना में इस साल के बजट में 94 करोड़ अर्थात कि 20% की कटौती की गई है. इससे भी ज्यादाआश्चर्यजनक व सत्य तथ्य यह है कि पिछले साल इस मद में सरकार ने केवल 100 करोड़ रुपये ही खर्च हुए थे. ऐसा प्रतीत होता है कि इस सरकार में एक हाथ क्या कर रहा है दूसरे हाथ को पता ही नहीं है अन्यथा जिस मुद्दे पर प्रधानमंत्री स्वयं संसद में खड़े होकर छाती ठोक कर एक करोड़ किसानों को जैविक खेती से जोड़ने की बात कर रहे हों उसी मद में 20% की कटौती हो जाए, तो इसका तात्पर्य यही है कि या तो माननीय प्रधानमंत्री जी को वस्तुस्थिति का पता नहीं है अथवा यह तथ्य जानबूझकर उनसे छुपाए गया है. जाहिर है कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयास नाकाफी हैं, और सरकार झूठे आंकड़ों से खुद को और जनता को दोनों को बहला रही है.
हाइटेक डिजिटल एग्रीकल्चर: वास्तविकता से कोसों दूर
ड्रोन के फायदे गिनाते सरकार थकती नहीं. पिछले बजट में एक मोटी राशि भी इस पर खर्च कर दी गई , पर इस अत्यंत महंगे खिलौने ने ज्यादातर फायदा इसके निर्माण तथा विपणन से जुड़ी कंपनियों को ही पहुंचाया है, बहुसंख्य किसानों तक इसका फायदा कैसे पहुचेगा इसका कोई प्रभावी रोडमैप दिखाई नहीं देता. डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर के उपयोग से कृषि में डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है. लेकिन सवाल उठता है कि इस प्रक्रिया का असल मकसद क्या है, और इसके असल लाभार्थी कौन होंगे? किसानों को हर सीजन में और अलग-अलग फसलों के लिए आॅनलाइन पंजीकरण की प्रक्रिया में उलझा दिया जाता है. डिजिटल डिवाइड और डेटा दुरुपयोग की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया गया है.
खाद्य तेल और दालों में आत्मनिर्भर : कथनी करनी में अंतर
खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भरता के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है, लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे कदमों का वास्तविक लाभ नहीं मिला है. जब किसानों का दलहन बाजार में आता है उस समय उन्हें न तो सही दाम मिलता है, और ना ही पर्याप्त खरीदी होती है. कालांतर में तेल आयात कर व्यापारी तथा कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं . सरकार की नाक के नीचे किस लूट रहा है और व्यापारी चांदी काट रहे हैं. ‘एमएसपी’ में समुचित बढ़ोतरी और बफर स्टॉक बनाने जैसे प्रयास विफल रहे हैं. बड़ी कंपनियों की मजबूत टिकाऊ लाबिंग चलते आयात पर निर्भरता और कीमतों में उतार-चढ़ाव की समस्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है.
फलों, सब्जियों की कीमतों में ठहराव : ठोस समाधान का अभाव
फलों सब्जियों की कीमतों में उतार-चढ़ाव के चलते महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. टॉपअप जैसी स्कीम की असफलता इस बात का सबूत है. फलों सब्जियों के बेहतर उत्पादन, मार्केटिंग और भंडारण के लिए इस बार भी कोई ठोस वित्तीय प्रावधान नहीं किया गया है, जिससे किसानों को राहत मिल सके.
डेयरी और फिशरीज: आधे मन से आधी अधूरी घोषणाएं
डेयरी और फिशरीज के क्षेत्र में केवल झींगा उत्पादन और निर्यात को बढ़ावा देने की बात कही गई है. देश में दूध का उत्पादन कुल खाद्यान्न से अधिक हो गया है. यह क्षेत्र पर्याप्त संभावनाओं का क्षेत्र है, लेकिन इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए भी कोई नई योजना या बड़ा आवंटन नहीं किया गया है.
कृषि सहकारिता: सहकारिता की फसल, चर गये नेतागण
सहकारिता आंदोलन के तुच्छ राजनीतीकरण के कारण पटरी से नीचे उतर गया है. असल किसानों को सहकारिता के फायदे के दायरे में लाने के लिए नई नीति लाने की घोषणा की गई है. लेकिन इसके सुधार का कोई नवीन रोड मैप आज भी अस्पष्ट है. इसके लिए पूर्व में गठित की गई समितियों के सुझावों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली नवीन नीति के आने तक किसानों को कोई ठोस लाभ मिलता दिखाई नहीं देता. सहकारिता के नवीन अवतार वर्तमान ‘एफपीओ’ भी कमोबेश नई बोतल में पुरानी शराब वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं.
अंतत: बहुत कठिन है डगर पनघट की, आगे की राह आसान नहीं
कृषि और सहयोगी क्षेत्रों के लिए बजट 2024-25 में कोई बड़े बदलाव या घोषणाएं नहीं हैं. सरकार की प्राथमिकताओं में कृषि को पहले स्थान पर रखना एक दिखावा है. वास्तविकता यह है कि किसानों को बड़े सुधारों तथा दीर्घकालिक योजनाओं एवं समग्र बजट के 15 से 20% राशि की आवश्यकता है. जब की सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो देश की जनसंख्या का 70% जो की खेती तथा कृषि संबंध उद्योगी से जुड़ा हुआ है के लिए को बजट का मात्र 3 से 4 % तीन से चार प्रतिशत राशि ही आवंटित किया जाता रहा है. वर्तमान बजट में भी नया कहने को कुछ भी नहीं है, पिछली परंपराओं को ही दोहराया गया है तथा कृषि हेतु बजट राशि में पहले से भी ज्यादा कटौती की गई है. किसान आंदोलन के दरमियान भाजपा नेताओं तथा उनके प्रवक्ताओं ने जिस तरह से देश के किसानों को तरह-तरह के विशेषणों से नवाजा, गालियां दी, आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया इस सबसे देशभर के किसानों में एक कड़वाहट तथा नाराजगी बैठ गई है. किसने की बहु प्रतीक्षित प्रतिशत मांगों को पूरा करते हुए करके किसानों के लिए एक सकारात्मक बजट लाकर किसने की इस नाराजगी को काम किया जा सकता था, किंतु सरकार ने एक और अच्छा अवसर गवा दिया.
लेखक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक हैं