अब ये अपना दर्द किसी अजनबी से साझा नहीं करतीं. अब इनके पास ढेर सारी सहेलियां हैं. सखी सहेली क्लब के भाई और दीदी इनकी समस्याओं को सुनते हैं, समाधान सुझाते हैं. कई तरह की जानकारियां देते हैं.रांची से ¦ राजीव रंजनबुलंद हौसले की धनी है रांची की चौबीस वर्षीय शुभा तिर्की. पिता सुधीर तिर्की और मां जिसन्ता तिर्की की बेटी शुभा रांची और खूंटी में खेल के जरिए जागरुकता लाकर मानव तस्करी से मुकाबला करने का अनूठा प्रयास कर रही है. इस मामले में शुभा ऐसी आदर्श कायम कर रही है, जिससे प्रेरणा लेकर गांव और आसपास की लड़कियां आगे बढ़ने लगी हैं और पूरे क्षेत्र में एक नया बदलाव दिख रहा है. अब रांची और खूंटी जिले के अलग-अलग गांवों में अनीता, सविता, जयंती, मनीला, पिंकी, रीमा, गीता, अंजलि, अनीमा और मुन्नी जैसी सैकड़ों आदिवासी लड़कियां दोपहर ढलते ही फुटबॉल के मैदान में जुटने लगती हैं. फुटबॉल खेलते हुए एक-दूसरे को छकाती, हंसती, खिलखिलाती और गोल करने पर बच्चों की तरह कलाबाजियां दिखाती हैं. अब इनके पास इतनी फुर्सत नहीं कि गांव के बाहर किसी व्यक्ति से मिलें और बात करें. अब ये अपना दर्द किसी अजनबी से साझा नहीं करतीं. अब इनके पास ढेर सारी सहेलियां हैं. सखी सहेली क्लब के भाई और दीदी इनकी समस्याओं को सुनते हैं, समाधान सुझाते हैं. कई तरह की जानकारियां देते हैं.ऐसे बना सखी-सहेली क्लबशुभा बताती है, सखी-सहेली क्लब की शुरुआत 7 सितंबर 2011 को हुई. सात-आठ लड़कियां मिलकर आशा संस्था के प्रांगण में बैठकर नई योजनाएं बनाती थीं. एक-दूसरे के विचारों से अवगत होती थीं. समाज में लड़कियों के साथ हो रहे भेदभाव और शोषण पर भी चर्चा होती थी. बार-बार यह बात सामने आती थी कि घर के काम की जिम्मेवारी लड़कियां संभालती हैं, फिर परिवार का दबाव लड़कियों पर ही क्यों रहता है, जबकि लड़के बेरोजगार, अनपढ़, शराबी होने पर भी घर का मुखिया बना दिए जाते हैं. साथ ही वंशावली भी उसी से मानी जाती रही है. इन सभी बातों को लेकर लड़कियों पर काफी दबाव बनाया जाता है. पढ़ाई और काम को लेकर लड़कियों पर खर्च नहीं किया जाता. समाज के कुछ दकियानूसी परिवारों में यह सोच है कि लड़कियों को पढ़ाकर क्या फायदा! उन्हें पराये घर जाना है.ऐसे में हम सात-आठ लड़कियों ने मिलकर तय किया कि हम सब मिलकर एक दूसरे के दु:ख-दर्द को सुनते और समझते हैं तो मदद भी कर सकते हैं. इसी सोच ने हमें एक नहीं राह दिखाई. ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक स्थिति दयनीय होने की वजह से लड़कियां मजबूर होकर बिना सोच-समझे पैसे कमाने और घरवालों की सहायता करने के जुनून में पलायन करती हैं. आगे चलकर यही लड़कियां ट्रैफिकिंग की शिकार हो जाती हैं और अपने गांव वापस नहीं आ पाती हैं. घरवाले अफसोस तो करते हैं, पर थाने जाकर रिपोर्ट भी नहीं लिखवा पाते हैं. वह लड़की सदा के लिए गुमनाम हो जाती है. इसी बात को लेकर हमने लोगों को जागरूक करने का निर्णय लिया. सभी लड़कियों की सहमति से सखी-सहेली क्लब की स्थापना हुई. आस-पास की लड़कियों को आमंत्रित किया गया. इसमें 50-60 लड़कियों ने भाग लिया.फुटबॉल के जरिए प्रशिक्षणसखी-सहेली क्लब ने अलग-अलग गांव की 10 से 25 वर्ष तक की किशोरियों को अपने ग्रुप से जोड़ा. आज इनकी संख्या रांची जिले में एक हजार और खूंटी जिले में पंद्रह सौ हो गई है. अब यह एक मजबूत संगठन के रूप में खड़ा है. सखी-सहेली क्लब की लगातार मासिक बैठक होती है, जिसमें सदस्यों को क्षमता विकास का प्रशिक्षण दिया जाता है. सुरक्षित पलायन और ट्रैफिकिंग को समझाने के लिए सखी सहेली क्लब ने फुटबॉल को केंद्र बिंदु बनाया. इसके लिए रांची जिले के दस गांव और खूंटी के पंद्रह गांवों को लिया गया. हर गांव से 14 से 22 साल तक ही दस-दस लड़कियों का चयन फुटबॉल टीम के लिए किया गया. आज रांची में तीन और खूंटी में पांच टीम हैं. रांची की टीम को रांची रेकर्स फुटबॉल टीम और खूंटी की टीम को खूंटी रेकर्स फुटबॉल टीम के नाम से जाना जाता है. रॉबिन अमित टोप्पो और राजू कच्छप टीम में कोच के रूप में जुडे हुए हैं.सशक्त होने लगीं युवतियांअब गांव की युवतियां सशक्त होने लगी हैं. इन दिनों रांची और खूंटी की आठ पंचायतों की युवतियां अपनी पहचान खुद बना रही हैं. रांची के लालखटंगा, हुडवा, चंदाघासी और डुमरी, कर्रा के रायमिशमला, लिमडा, बरकोली और खिचकोर पंचायत की युवतियां गांव, पंचायत, ब्लॉक, जिला स्तरीय फुटबॉल मैच में गांव का नाम रौशन कर रही हैं. इन्होंने कई फुटबॉल टूर्नामेंट जीते हैं और आज गांव इनसे गौरवान्वित हो रहा है. सखी-सहेली क्लब में शामिल युवतियों में से तीन सौ से ज्यादा वैसी युवतियां हैं, जो पलायन की शिकार हो चुकी हैं. इनके साथ बहुत जुल्म हो चुका है. अब ये अपने गांव लौट चुकी हैं. गांव में अब पलायन और ट्रैफिकिंग पर पैनी नजर रखने वाली सखी सहेली क्लब से जुड़ी किशोरियां खेलों में अपनी पहचान बना रही हैं. आशा संस्था की ओर से इन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. गांव के मुखिया इन्हें खेल से जुड़े सभी साधन मुहैया करा रहे हैं.उतरता शर्म टूटता झिझकलड़कियां पहले जर्सी पहनने में शर्म महसूस करती थीं. हाफ पैंट के ऊपर स्कर्ट पहन लेती थीं. बाद में परिवारों ने उनकी झिझक को तोड़ा. माताएं खुद हाफ पैंट पहनकर खेल के मैदान में उतर आर्इं. इसके बाद इनकी झिझक खत्म हुई. क्लब ने इन्हें खेलने के लिए जागरूक किया. थोडेÞ से प्रशिक्षण के बाद अब ये लड़कियां शानदार प्रदर्शन कर रही हैं. रांची, खूंटी, गुमला के अलावा ये छत्तीसगढ़, बिहार जैसे राज्यों में भी खेलने जा रही हैं. पहले दो वर्ष लड़कियों को दक्ष किया जाता है. उन्हें ट्रैफिकिंग, असुरक्षित पलायन की शिकार बनी लड़कियों से मिलाया जाता है. इसके बाद पांच साल में उन्हें रोजगार से जोड़ने की योजना है. फुटबॉल गांव की लड़कियों को एक मंच पर लाने का माध्यम है. गांव में बाल संरक्षण समितियां बनाई जा रही हैं. इसके माध्यम से ग्रामीण बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा की जिम्मेदारी दी जा रही है. गुम बच्चों की सूचना चाइल्ड वेलफेयर कमेटी को देना सिखाया जा रहा है.शुभा कहती है, फुटबॉल के साथ-साथ हमने उन पचीस सौ लड़कियों में एक सौ ऐसी लड़कियों को गेमचेंजर के रूप में चिन्हित किया है, जो अपने गांव, अपनी पंचायत के विकास के लिए आगे आकर काम करेंगी. इन सौ लड़कियों को संस्था जुझारू और कार्यशील बनाने की मुहिम चला रही है. इनके साथ संस्था नियमित बैठक करती हैं. इन्हें लीडरशिप ट्रेनिंग, स्किल डेवलपमेंट और गांवों के विकास की जानकारी दी जाती है. सखी सहेली फूड कॉर्नर की शुरुआत भी की गई है. हर गांव में एक सखी सहेली सशक्तिकरण क्लब खोला गया है. आपसी सहयोग से बैंक अकाउंट भी खोले जा रहे हैं.हिंसा और ट्रैफिकिंग पर दे रहे जानकारीआशा के सचिव अजय जायसवाल के मार्गदर्शन में सखी सहेली को दिशा मिली. इनके मार्गदर्शन में ही क्षेत्र विस्तार हुआ. नए-नए लोगों को जोड़ने में कामयाबी मिली. इन्होंने महिला हिंसा और ट्रैफिकिंग के बारे में जानकारी दी. गांवों के सोर्सेज और उन्हें विकिसत करने के तरीके बताए. दूसरी ओर, आशा की अध्यक्ष पूनम टोप्पो ने लड़कियों को एक बेहतरीन मंच प्रदान किया. लीडरशिप ट्रेनिंग दी. अंदर की झिझक को खत्म किया. लोगों से मिलने-जुलने, लड़कियों को एक मंच पर लाने में काफी मेहनत की. शुभा कहती है, हमारे इस कार्य के लिए कई वरिष्ठ अधिकारियों का सहयोग भी मिल रहा है. अनुराग गुप्ता और संपत मीणा का काफी सहयोग मिलता रहा है.
गांव को गौरवान्वित करती बेटियां
Uday Sarvodaya | 17 Nov 2018 7:42 AM GMT
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Updated : 17 Nov 2018 7:42 AM GMT
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