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    अति की हार
    राजनीति

    अति की हार

    यह एक लम्बा और उबाऊ चुनाव था, लेकिन भविष्य में इसे भारतीय लोकतंत्र के सफ़र में एक मील के पत्थर के तौर पर याद रखा जाएगा. दस साल के तथाकथित “मजबूत सरकार” के बाद देश में एक बार फिर गठबंधन के राजनीति की वापसी हो गयी है...
    By June 6, 2024No Comments8 Mins Read
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    ⇒ जावेद अनीस

    यह एक लम्बा और उबाऊ चुनाव था, लेकिन भविष्य में इसे भारतीय लोकतंत्र के सफ़र में एक मील के पत्थर के तौर पर याद रखा जाएगा. दस साल के तथाकथित “मजबूत सरकार” के बाद देश में एक बार फिर गठबंधन के राजनीति की वापसी हो गयी है, “400 पार” का अतिवादी नारा देने वाली ताकतें खुद 240 के आसपास सिमट गयी है. “अबकी बार मोदी सरकार” जैसा व्यक्तिवादी नारा देने वाले लोग अब एनडीए सरकार की बात करने लगे हैं. इन नतीजों से यह भ्रम भी टूटा है कि मोदी और विपक्ष विकल्पहीन है. साथ ही यह तथ्य एक बार फिर स्थापित हुआ है कि विविधता भरे इस महादेश को लम्बे समय तक एकांगी तौर-तरीकों और व्यक्तिवाद के सहारे लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता है. सरकार किसकी बनेगी और प्रधानमंत्री बनेगा कौन? यह अगले कुछ दिनों के भीतर परदे के पीछे तय होना है, लेकिन इस चुनावों में निश्चित रूप से अतिवाद की हार हुई है और भारत का लोकतंत्र और मजबूत होकर उभरा है.

    दिलों में संविधान
    2024 के नतीजे बताते हैं कि इस देश के बहुजन और अल्पसंख्यक जनता के लिए संविधान महज एक किताबी दस्तावेज नहीं है बल्कि उनके संवैधनिक वजूद से जुड़ा हुआ मसला है. इस सम्बन्ध में रोहित डे की पुस्तक, “ए पीपल्स कॉन्स्टिट्यूशन” का जिक्र बहुत मौजूं होगा जो  बहुत ही प्रभावशाली और सिलसिलेवार तरीके से बताती है कि  आजाद भारत में किस प्रकार से आम नागरिक अपने अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों के इर्द-गिर्द लामबंद हुए हैं. इसे हम 2020 में नागरिकता कानून के खिलाफ चले देशव्यापी आन्दोलन से समझ सकते हैं जिसमें पहली बार अल्पसंख्यकों द्वारा इतने पड़े पैमाने पर संविधान को केंद्र में रखते हुये प्रतिरोध दर्ज की गयी थी. इस आन्दोलन के माध्यम से संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के उन मूल्यों को आवाज देने की कोशिश की गयी थी जो देश के अल्पसंख्यक समुदायों को धर्म के आधार पे समानता का अधिकार प्रदान करते हैं. इसी कड़ी में 2024 के चुनाव ने देश की दलित, पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को यह याद दिलाने का काम किया है कि संविधान ने सदियों से चले आ रहे शोषण से ना केवल उन्हें सम्मान, नागरिक अधिकार, स्वाभिमान, और सुरक्षा प्रदान करने का काम किया है बल्कि आरक्षण के माध्यम से उन्हें आगे बढ़ने का मौका भी फराहम किया है इसलिए जरूरत पड़ने पर इसे बचाने के लिए आगे आना उनके लिए पहली प्राथमिकता है.

    हर चुनाव का अपना एक नैरेटिव होता है, इस चुनाव का केन्द्रीय नैरेटिव “संविधान” के इर्द गिर्द था जिसमें संविधान में बदलाव से लेकर संविधान को बचाने की बातें शामिल थीं. दिलचस्प ये है कि हमेशा के विपरीत इस बार नैरेटिव सेट करके का काम विपक्ष की तरफ से किया गया और पहली बार ऐसा हो रहा था कि विपक्ष द्वारा तय किए एजेंडे पर भाजपा को जवाब देना पड़ रहा था. दरअसल “अबकी बार चार सौ पार” का भारी भरकम नारा खुद भाजपा पर ही भारी पड़ गया और इसकी शुरुआत कर्नाटक भाजपा नेता अनंत हेगड़े के उस बयान के बाद हुई  जिसमें उन्होंने कहा कि अबकी बार सरकार बनी तो भाजपा संविधान बदलेगी. यहीं से विपक्षी पार्टियों को ये नैरेटिव गढ़ने का मौका मिल गया कि भाजपा को चार सौ सीट इसलिए चाहिए ताकि वह संविधान बदल सके.बाद में अपने इस नैरेटिव को मजबूत और धारदार बनाने के लिए उन्होंने इसमें आरक्षण का मुद्दा भी जोड़ दिया कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो वो आरक्षण खत्म कर देगी. विपक्ष के इस नैरेटिव को आधार देने में संविधान और आरक्षण को लेकर संघ परिवार के पुराने इतिहास ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संविधान में संशोधन होते रहे हैं और सभी सरकारें करती भी रही है लेकिन असली डर संविधान की “मूल भावना” में बदलाव को लेकर है जिसे संघ के विरोधी लम्बे समय से संविधान बदलने के उसके “हिडेन एजेंडा” के तौर पर पेश करते रहे हैं. अब की बार चार सौ पार के नारे ने इस डर को मजबूत करने का काम किया कि अगला एजेंडा संविधान की मूल भावना में बदलाव का है.

    भाजपा और संघ के नेता समय-समय पर संविधान और आरक्षण दोनों की समीक्षा की बात रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के समय “संविधान समीक्षा आयोग” का गठन भी किया गया था. संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत एक दशक में ही कई बार संविधान और आरक्षण के समीक्षा की बात दोहरा चुके हैं. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी, जबकि 2017 में उन्होंने भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किये जाने की वकालत करते हुये कहा था कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित है इसलिए आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर पुनर्विचार किये जाने की जरूरत है. हालांकि इन बयानों के बाद भाजपा और संघ की तरफ से सफाई भी पेश किये जाते रहे हैं लेकिन इससे प्रभावित होने वाली आबादी के मन में उनकी मंशा को लेकर शंका और अविश्वास तो गहरा ही हुआ है.

    हालांकि 2024 के चुनावी अभियान के दौरान जब यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा तब भाजपा ने इसका जवाब देना शुरू किया गया और समुदायों के विभाजन की अपनी पुरानी लाईन पर चलते हुये इसका हिंदू-मुस्लिम के सांप्रदायिक नैरेटिव पेश करने की कोशिश की गयी जिसकी कमान खुद नरेंद्र मोदी ने संभाली और ये कहना शुरू कर दिया कि अगर कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन की सरकार बनी तो वे एससी, एसटी और ओबीसी को संविधान के जरिए मिले आरक्षण को छीन कर मुसलमानों को दे देंगे लेकिन इन तमाम कवायदों के बाद भी बात बनी नहीं जिसे हम नतीजों के रूप में देख सकते हैं.

    विपक्ष के फेफड़ों में प्राणवायु
    इन नतीजों से विपक्ष के फेफड़ों में प्राणवायु भरने का काम किया है, लम्बे समय बाद विपक्ष का आत्मविश्वास लौटा है. पिछले दस सालों से भारतीय राजनीति में विपक्ष, दबाव में और लस्त-पस्त नजर आ रहा था और वैचारिक रूप से असमंजस्य की स्थिति में था, भाजपा के वैचारिक हिन्दू राष्ट्रवाद का उसके पास कोई जवाब नहीं था.यह धारणा पुख्ता हो चुकी थी कि मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा को हराना बहुत मुश्किल है.

    INDIA-Meeting

    इस बार भी अपना नैरेटिव दूंढ लेने के बावजूद विपक्ष भाजपा को हरा कर सत्ता से बाहर करने के लिए नहीं बल्कि उसके सीटें कम करने के इरादे से चुनाव लड़ रहा था जिससे सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके और इसमें विपक्ष कामयाब भी हुआ है. विपक्षी पार्टियों में भी कांग्रेस पार्टी के लिए यह ऑक्सीजन की तरह है. अपनी सीटों की संख्या दोगुनी कर ली है,  गौरतलब है 2013 के बाद कांग्रेस करीब 52 चुनाव हार चुकी है, इस दौरान उसके 50 से अधिक बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं जिसमें करीब 12 पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं. इस नतीजे से खुद कांग्रेस और कांग्रेसियों की स्वयं के बारे में ही धारणा बदलने वाली है, इससे उनका यह यकीन बनेगा कि कांग्रेस वापसी कर सकती है.

    अतिवाद की सीमा
    इन नतीजों से यह भी साबित हुआ है कि हर प्रकार के अतिवाद की एक सीमा और एक्सपायरी डेट होती है. “सनातन” तो इंसानी और बराबरी के मूल्य ही होते हैं. इससे यह भी उजागर हो गया है कि जरूरी नहीं है कि भाजपा के दो कोर मुद्दे हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व हमेशा सफलता ही दिलायें, इनकी भी सीमाएं और कमियां है.इस चुनाव में भाजपा के चुनाव अभियान को देखकर लगा कि उसने लगभग अपने सभी कोर एजेंडे को पूरा कर दिया है और साथ ही उसका सिलेबस भी पूरा हो गया है और उसके लिए सिवाय संविधान के मूल को बदलने और लोकतंत्र को स्थगित कर देने के अलावा भविष्य के कोई ख़ास एजेंडा बचा नहीं है.साथ ही अंदरूनी तौर पर एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा जड़ बन चुकी है, इसमें मोदी का करिश्मा अमित शाह का मैनेजमेंट भी शामिल है.

    NDA-Meeting

    अबकी बार गठबंधन सरकार
    पिछले दस सालों में भारत के लोग केंद्र में मजबूत और पूर्ण नियंत्रण वाली सरकार के साक्षी रहे हैं, इसी तरह का एक और दौर इंदिरा गांधी के समय गुजर चुका है जिसके अनुभव लोकतंत्र के सेहत के लिए अच्छे नहीं रहे है, इसलिए जिम्मेदार और जागरूक नागरिकों के लिए उनकी चिंता और ऊब सतह पर नजर आ रही थी. इस बार का जनादेश मोदी नहीं गठबंधन सरकार के लिए है. 2014 से पहले इस देश में गठबंधन की सरकारों का एक लंबा दौर चला है, जिसमें प्रमुख रूप से वर्ष 1998 से वर्ष 2004 के बीच भाजपा के नेतृत्व में एनडीए का दौर तथा 2004 से 2014 के बीच कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए का रहा है. साल 2014 के बाद भी देश में भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ही सरकार बनी, लेकिन यह एनडीए और भाजपा की नहीं बल्कि मोदी की सरकार थी. अब 2024 के नतीजों से साफ़ हो गया कि तीसरी बार मोदी की सरकार नहीं बनने जा रही  है, अगर मोदी के नेतृत्व में सरकार बनती भी है (जिसकी संभावना बहुत कम है) तो भी यह सही मायनों में असली एनडीए की सरकार होगी जिसमें भाजपा के अकेले अपने दम पर बहुमत नहीं होने की वजह से उसे गठबंधन के घटक दलों की शर्तों और नखरों को झेलना अनिवार्य होगा.अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठबन्ध सरकार का गठन हो भी गया तो उनके मिजाज़ और कार्यशाली को देखकर नहीं लगता कि उनके लिए इसे चलाना आसन होगा.

    400 par INDIA Modi NDA
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