उमेश यादव
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में गंगा, यमुना और अदृश्यमान सरस्वती नदी के त्रिवेणी संगम पर पौष पूर्णिमा के पहले शाही (अब अमृत) स्नान से आरंभ हुए महाकुंभ 2025 में श्रद्धालु (और विभिन्न रूप-स्वरूप में उन्हें और उनके असबाब को अंतर्ध्यान करने के फिराक में घूमते चांडाल) मौनी अमावस्या के तीसरे अमृत स्नान से से भीगे शंखध्वनि, मंत्रोच्चार, बिछड़े अपनों की खोज- पुकार, चीत्कार, व्यापार, हवा में डंडे भांजती सरकार की भीषण मुखरता के बीच मौन का ‘राम राम’जपते जैसे-तैसे अपने गंतव्य की ओर खिसक चुके होंगे। संत संतरी महंत मंत्री ताड़क तंत्री और सनातनियों/आस्था में सबकुछ भूल जाने वाले भक्तों के आने- जाने का तांता चरम पर है और यह दृश्य कमोबेश इसी तरह महाशिव रात्रि (26 फरवरी) तक जारी रहेगा। इस बीच लघु भारत दशार्ने वाले महाकुंभ में बिखरे इंद्रधनुषी रंग के साथ ही यहां बिछी सनातनी चादर को दागदार करते कई धब्बे भी सोशल मीडिया और जागरूक व्यक्तियों द्वारा उजागर किया गया है।
सरकार द्वारा इस आयोजन के प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही है। इसकी बानगी आपको प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया में हर जगह दिख जायेगी। पूरा प्रयागराज शहर कुंभ मेले में आए हुए लोगों के स्वागत करते और कुंभ को ऐतिहासिक बताते पोस्टरों- बैनरों से पटा पड़ा है। इसके आयोजन में सरकार दिल खोलकर हजारों करोड़ रुपये खर्च कर रही है। गौरतलब है कि औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार इन मेलों पर व्यय से अधिक आय अर्जित करती थी। जिलाधिकारी इलाहाबाद ने कमिश्नर इलाहाबाद को 1870 के कुंभ मेले की रिपोर्ट प्रेषित करते हुए बताया कि ‘इस वर्ष के मेले में विभिन्न स्रोतों से कुल 41825 रुपये 10 आना की राजस्व प्राप्ति तथा 12815 रुपये 14 आना और एक पैसे का व्यय हुआ।’
ऐसे ही 1882 कुंभ मेले की प्रेषित रिपोर्ट में बताया गया कि व्यय की तुलना में आय अधिक हुई है, इसलिए अवशेष धनराशि में से अल्फ्रेड पार्क, पुस्तकालय एवं संग्रहालय तथा काल्विन अस्पताल आदि पर खर्च किया गया।’(मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर प्रयागराज कुंभ- 2019, सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग,उत्तर प्रदेश,पृ.-124)
महात्मा गांधी ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’ के 5वे अध्याय में हरिद्वार कुंभ मेले (1915 ) में व्याप्त पाखंड, अव्यवस्था, साधुओं की लंपटता और अज्ञानता का वर्णन इस प्रकार किया है-’ इस भ्रमण से मैंने लोगों की धर्म भावना की अपेक्षा उनका पागलपन, उनकी चंचलता, उनका पाखंड और उनकी अव्यवस्था ही अधिक देखी। साधुओं का तो जमघट ही इकट्ठा हो गया था। ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे सिर्फ मालपुए और खीर खाने के लिए ही जन्मे हों। यहाँ मैंने एक पांच पैरों वाली गाय देखी। मुझे तो आश्चर्य हुआ किन्तु अनुभवी लोगों ने मेरा अज्ञान तुरन्त दूर कर दिया। पाँच पैरों वाली गाय दुष्ट और लोभी लोगों के लोभ की बलिरूप थी।
गाय के कंधे को चीरकर उसमें जिंदे बछड़े का काटा हुआ पैर फँसाकर कंधे को सी दिया जाता था और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग अज्ञानी लोगों को ठगने में किया जाता था। पांच पैरोंवाली गाय के दर्शन के लिए कौन हिन्दू न ललचायेगा? उस दर्शन के लिए वह जितना दान दे उतना कम है।’ (पृ०-392)
नवजागरकालीन पत्र पत्रिकाओं को पलटते हुए हमारी नजर ‘चाँद’ पत्रिका के कुछ अंकों पर पड़ी। इन अंकों में गंगा स्नान/ कुंभ मेले पर व्यंगात्मक आलेख मिले। ऐसा ही एक व्यंग्य ‘चाँद’ (वर्ष ११, खंड २, सितंबर 1933, पृ० 582-584) के अंक में ‘श्री जगतगुरु का फतवा’ लेखक ‘हिज होलीनेस श्री वृकोदरानन्द जी विरुपाक्ष’ के नाम से मिलता है। जिसमें नदियों में स्नान के लिए पर्व विशेष की तिथियों या मुहुर्तों पर स्नान करने के लिए तो तंज कसा ही गया है, हिन्दू महासभा के तत्कालीन बड़े नेता मदनमोहन मालवीय और अन्य पढ़े लिखे लोगों द्वारा ऐसे स्नान करने को बढ़ावा देने पर भी जमकर चुटकी ली गयी है-
‘गत मास दानव-कुल-दिवाकर राहु महोदय की कृपा से पुण्य का भाव टका सेर से भी कम रहा। गत सूर्य-ग्रहण के समय सनातनियों ने गंगा आदि नदियों, तालाबों तथा कुओं पर नहा-नहा कर सूर्य भगवान की भी जान बचा ली और अपने लिए भी मुक्ति का मार्ग बना लिया। तीर्थ के पंडों ने तो माल मारा ही, बेचारे डोम’ भी घाटे में न रहे। राहु महाराज की कृपा से दो-चार दिन तक भर पेट खाने का सामान इन्हें भी मिल गया।… हिज होलीनेस के अजीजुल कदर भैय ‘जागरण’ चिन्तित हैं कि आखिर ‘यह स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं।’ नहीं, कम से कम जब तक बाबा शाह मदार की कृपा से घृतपक्वविध्वंसिनी मूजी की कब्र सी तोंदों का और ऊँचे टीले पर कुशा की झाड़ सी चोटी वाली चिकनी खोपड़ियों का अस्तित्व कायम रहेगा, तब तक न यह बला टलेगी, न बाबा विश्वनाथ चैन से भंग-बूटी छानने पाएँगे और न चन्द्रमा और सूर्य राहु के कराल जबड़े से परित्राण पाएँगे। अजीजम आश्चर्य में हैं कि ‘कितने ही अच्छे- खा़से पढ़े-लिखे लोग भी इतनी आस्था से गंगा में डुबकियाँ लगाते हैं, मानों यही स्वर्ग द्वार हो।’ और नहीं क्या, स्वर्ग-द्वार के कोई दुम होती है या अजीजम ने उसे ‘जुलोजिकल गार्डन’ का फाटक समझ रक्खा है।
अरे भाई साहब, इसी द्वार से तो महा ‘अच्छे खासे’ और परम ‘पढ़े-लिखे’ देशपूज्य महामना मालवीय जी तक स्वर्ग के विस्तृत प्रागण में प्रवेश करने को तैयार बैठे हैं। भला, इनसे बढ़ कर पढ़े-लिखे और अच्छे-खासे इस देश में कितने हैं? समझे दादाराम, यहाँ सारे कुएँ में ही भाँग पड़ गई है। परम श्रद्धास्पद बूढ़े दादा पंडित मदनमोहन जी मालवीय महोदय की विद्वत्ता और आपके असाधारण ज्ञान के विरुद्ध अँगुली उठाने का दुस्साहस हिज होलीनेस तो क्या, हिज होलीनेस के लकड़दादा भी नहीं कर सकते। कौन अक़्ल का अन्धा कह सकता है कि मालवीय जी चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के वास्तविक कारण की जानकारी नहीं रखते, परन्तु यह जानकर आप मारे खुशी के फूल उठेंगे कि मालवीय जी के ‘संरक्षणशिप’ में प्रकाशित होने वाले नवजात ‘सनातन-धर्म’ ने इस वैज्ञानिक युग को दिन-दहाड़े अँगूठा दिखाते हुए डंके की चोट ग्रहणों के अवसर पर स्नान-दान की महिमा विघोषित की है।’
‘चांद’, ‘भविष्य’सहित अन्य कई तत्कालीन पत्र- पत्रिकाओं में ‘दुबे जी की चिट्ठी/ दुबे जी की डायरी’ नाम से खूब व्यंग्य मिलते हैं। इन पत्रों के अंत में लेखक का नाम विजयानंद (दुबे जी) लिखा मिलता है। यह विजयानंद (दुबे जी) प्रख्यात साहित्यकार विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ थे। इन चिट्ठियों के माध्यम से ये तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों एवं राजनीतिक व्यवस्था पर गहरी चोट करते थे। ऐसी ही एक चिट्ठी इलाहाबाद के 1930 के कुंभ मेले पर इन्होंने ‘चांद’ में (वर्ष ८, खंड १, संख्या ५, पूर्ण संख्या ८९,मार्च 1930, पृ. 894-897,901) लिखी है।
यह चिट्ठी बिना कांट- छांट के यहाँ अविकल प्रस्तुत है-
दुबे जी की चिट्ठी
अजी सम्पादक जी महाराज,
जय राम जी की !
गत मास आपके इलाहाबाद में कुम्भ-स्नान का विराटोत्सव था। यद्यपि अपने राम इस धर्मोत्सव के पास भी नहीं फटके, परंतु अन्य लोगों से वहां के जो समाचार मिले, उनसे अपने राम ने यह निष्कर्ष निकाला कि हिन्दुओं में बौड़म-पंथ का अटल साम्राज्य है। लोग टिड्डी-दल की भांति प्रयागराज पर टूट पड़े थे। क्यों? इसलिए कि बारह वर्ष पश्चात भगवान-इन-क्षीरसागर ने स्वर्ग के फ्री पास बांटे थे। प्रत्येक बारहवें वर्ष भगवान् एक विशेष स्थान पर, एक विशेष मास की विशेष तिथि के एक विशेष समय पर स्वर्ग के पास मुफ़्त वितरण करते हैं। ये पास पानी के अन्दर मिलते हैं। भगवान स्वयं सागर के अन्दर रहते हैं न? इस कारण वह खुश्की में खड़े होकर पास मांगने वालों की बात भी नहीं सुनते। पास प्राप्त करने के लिए पानी में गोता मारना आवश्यक है। इस बार प्रयागराज की त्रिवेणी के संगम पर इन पासों की वर्षा हुई थी। फर्स्ट क्लास के पास तो सुनते हैं, सदैव नाँगे मार ले जाते हैं।
नंगा खुदाई से चंगा। नंगों के सामने भले आदमी भला कहां टिक सकते हैं? भगवान भी इन नंगों से भय खाते हैं; तब सर्व-साधारण क्यों न डरें? एक ही नंगा सैकड़ों को जिÞच कर देता है; तब जहां हजारों की संख्या हो, वहां तो उनका राज्य ही समझना चाहिए। होता भी ऐसा ही है। कुम्भ में नङ्गों का राज्य रहता है। इसलिए फर्स्ट- क्लास के सब पास ये लोग हथिया लेते हैं- सर्व-साधारण को सैकेंड क्लास तथा थर्ड क्लास के पास मिलते हैं। सुनते हैं, गवर्नमेंट की ओर से भी यही प्रबंध रहता है कि सब से पहले नाँगे त्रिवेणी पर पहुंच जाएं। गवर्नमेंट सर्व-साधारण की तरह दो-चार नंगों से भय नहीं खाती; परन्तु हजारों की संख्या होने के कारण जरा हाथ-पैर बचा कर काम करती है! और नहीं तो क्या- बैठे बिठाए झगड़ा कौन मोल ले? क्योंकि बौड़म-पन्थ मीमांसा के सप्तम अध्याय के साढ़े-8वें श्लोक के अनुसार अवसर पड़ने पर सब लोग उन्हीं नंगों की तरफदारी करने लगते हैं। ये नांगे बौड़म-पन्थियों के पूज्य हैं।
अच्छी वस्तु सदैव पूज्यों की भेंट की जाती है। इस कारण बौड़म-पंथी लोग स्वर्ग का उत्तम स्थान नांगों के लिए छोड़ देते हैं- यद्यपि यह भी सुना जाता है कि ये नाँगे मारते खां होने के कारण जबरदस्ती ऐसा करते हैं। अस्तु, कारण चाहे जो हो, परन्तु होता ऐसा ही है। अपने राम से लोगों ने बहुत कहा कि दुबे जी, तुम भी प्रयाग जाकर स्वर्ग की एक कुर्सी रिजर्व करा आओ-कम से कम थर्ड या फोर्थ क्लास में जगह मिल ही जायगी। परन्तु अपने राम को स्वर्ग से जरा कम प्रेम है; क्योंकि स्वर्ग का नाम लेने से मृत्यु का स्मरण हो आता है।
फारसी-कवि शेख सादी साहब की यह उक्ति याद आ जाती है-
बर्दिया दुर मुनाफा बेशुमारस्त।
अगर ख़्वाही सलामत बर ।।
अर्थात ‘समुद्र में बेशुमार (असंख्य) मोती हैं, परन्तु जान की सलामती किनारे पर ही है।’ अतएव जिस बात में जान का खतरा हो, उस काम के पास अपने राम कम फटकते हैं, चाहे उससे कितना ही लाभ क्यों न हो।
लोगों का कहना है कि प्रयाग में लाखों साधुओं की भीड़ जमा हुई थी। अनेक प्रकार के तथा अनेक पंथ के साधु थे। नांगे, बैरागी, संन्यासी, कबीर-पन्थी, नानक-पंथी, रैदासी इत्यादि-इत्यादि सबकी बानगियां मौजूद थीं। अनेक लोग तो केवल इनके दर्शनों के लिए ही गए थे। वे लोग थे भी दर्शनीय – विशेषत: नांगे लोग तो निश्चय ही दर्शनीय थे। ऐसे लोगों के दर्शन सर्व साधारण को कहां नसीब होते हैं? जिन्होंने बड़े पुण्य किए थे, उन्हीं को वे दर्शन प्राप्त हुए। खेद केवल इतना है कि अब बारह वर्ष तक उनकी झलक देखने को न मिलेगी। बीच में कुंभी के अवसर पर कदाचित दर्शन हो जाएं ।
कुंभ से लौटे हुए एक बौड़मपंथी महाशय से उस दिन मेरी बातचीत हुई- बड़ा आनंद आया। मैंने पूछा- कहिए, प्रयागराज हो आए? बौड़मपंथी महोदय दांत निकाल कर बोले- हाँ, हो आए। पहले तो इच्छा नहीं थी; परन्तु फिर सोचा कि मरने-जीने का मामला है। अगला कुम्भ बारह वर्ष पश्चात पड़ेगा, तब तक जिए न जिए।
मैंने कहा- यह आपने बहुत बुद्धिमानी का काम किया। यदि इस कुंभ में न जाते और अगला कुम्भ आने के पहले ही मर जाते, तो नरक में भी ठौर न मिलता। अब तो स्वर्ग के अधिकारी हो गए, अब क्या चिन्ता है? अब कुंभ चाहे जन्म भर न आए।
‘जन्म भर क्यों न आए, बारह वर्ष पश्चात फिर आएगा।’
‘तब फिर हो आइएगा, डबल हक हो जायगा।’
‘और एक दफे पहले गए थे।’
मैंने कहा – तब तो भगवान् आपको स्वर्ग में अपने बराबर ही लिटाएँगे। आप अब इस योग्य हो गए हैं कि जिसकी आप सिफारिश कर दें, उसे स्वर्ग मिल जाय। जरा हमारा भी ख्याल रखिएगा।
बौड़मपंथी महाशय रेशा खत्मी होकर बोले-आप भी क्या बातें करते हैं दुबे जी! मैं किस योग्य हूँ? मैं तो एक महापतित, अधम तथा पापी आदमी हूँ।
मैंने कहा- नि:संदेह आप महापतित, नीच, पाजी, नालायक, उल्लू की दुम फाख़्ता आदमी हैं। आपके मुख पर यही शोभा देता है; परन्तु स्वर्ग के अधिकारी आप हो ही गए।
‘शास्त्रों में तो यही लिखा है कि कुम्भ-स्नान करने से सारे पापों का क्षय हो जाता है।’
‘आप तो तीन दफा स्नान कर चुके हैं, आपके तो तीन खून माफ हो गए। तब क्या चिन्ता है, कल से आरम्भ कीजिए।’
‘क्या आरंभ करूं?’- बौड़मपंथी महोदय ने कुछ घबरा कर पूछा।
‘खून !’- मैंने उत्तर दिया।
‘अजी, राम-राम! आप भी क्या बातें करते हैं दुबे जी! ऐसा काम हम भला कर सकते हैं।’
‘क्यों नहीं कर सकते। अपने अधिकारों का सदुपयोग तो करना ही चाहिए। कम से कम एक ही कर डालिए।’
‘वाह! आप अच्छा उल्लू बना रहे हैं। खून करूँ, जिसमें फाँसी पर लटकाया जाऊँ!’
‘ओहो ! यह मुझे याद ही न रहा कि फाँसी पर अवश्य लटकना पड़ेगा, चाहे पाप लगे या न लगे। इस मामले में ‘भगवान जी ईश्वर जी अल्लाह मियाँ’ थोड़ी भूल करते हैं।
उन्हें गवर्नमेंट के पास उन लोगों की सूची भेज देना चाहिए, जिनके तीन खून माफ हों।’
बौड़मपन्थी महाशय बोले- भगवान् जी ईश्वर जी अल्लाह मियां का क्या तात्पर्य?
मैंने उत्तर दिया- जैसे मारवाड़ियों तथा अन्य बड़े-बड़े फर्मों का नाम पड़ता है- रतन जी रण छोड़ जी डालमियां-वैसे ही स्वर्ग में भगवान जी का भी एक फर्म है। उसका नाम ‘भगवान जी ईश्वर जी अल्ला मियां’ पड़ता है। संसार का सारा काम इसी फर्म के नाम से होता है। ‘अच्छा ! यह आपको कैसे मालूम हुआ?’
‘अब यह न पूछिए। बड़ी मुश्किल से इस रहस्य का पता लगा है। कुंभ के अवसर पर ‘भगवान जी ईश्वर जी अल्लाह मियां’ को बड़ा परिश्रम पड़ा है। जैसे यहां रेलवे कंपनियों को ट्रेनों की संख्या बढ़ानी पड़ी थी तथा टिकिट-चेकर, बुकिग क्लर्क, क्रूमैन इत्यादि बढ़ाने पड़े थे, वैसे ही भगवान जी को भी बहुत से क्लर्क रखने पड़े थे।
‘क्यों?’
‘जो लोग कुंभ-स्नान करने आए थे, उनकी सूची बनाने के लिए। उन्हें स्वर्ग में स्थान देना पड़ेगा न? इसलिए बिना उनकी सूची रक्खे पता कैसे चलेगा? इसके अतिरिक्त उनके सब पापों को कैन्सिल कराया गया। यह सब एक आदमी थोड़े ही कर सकता था।’
बौड़मपंथी महोदय बोले- यह तो आप मजाक करते हैं।
‘ऐसा न कहिए; नहीं तो आपका कुम्भ-स्नान का पुण्य तथा स्वर्गाधिकार भी मजाक हो जायगा।’
‘वह तो मजाक हो ही नहीं सकता- वह तो शास्त्र-सिद्ध बात है।’
‘तो जो मैं कह रहा हूं, वह भी शास्त्र-सिद्ध है।’
‘किस शास्त्र के अनुसार सिद्ध है?’
‘वह शास्त्र बहुत शीघ्र प्रकाशित होने वाला है।’
‘कलियुग में शास्त्र लिख ही कौन सकता है-इतनी क्षमता किसमें है ?’
‘अच्छा, खैर न सही। अब यह बताइए कि वहाँ आपने और क्या-क्या देखा?’
‘साधु-संतों के दर्शन किए, बड़े-बड़े महात्मा पधारे थे।’
‘नांगे भी तो आए थे?’
‘हां, आए थे। उनमें भी बड़े-बड़े महात्मा थे।’
‘जब हजारों की संख्या में थे, तब बड़े, छोटे, मझोले सब प्रकार के रहे होंगे; पर आपको कौन पसन्द आए, यह बताइए?’
‘हमारे लिए सभी अच्छे थे, हम अपने मुँह से किसी को बुरा क्यों कहें?’
‘कभी न कहिएगा, नहीं तो सारा पुण्य क्षय हो जायगा।’
‘अनेक सभाएं भी हुई थीं।’
‘क्यों न हों, दर्शक मुफ़्त में मिल जाते हैं।’
‘मुफ़्त से आपका क्या मतलब ?’
‘वैसे सभा की जाय, तो लोगों को निमन्त्रण भेजना पड़े, उनके ठहरने तथा भोजन- वोजन का प्रबन्ध करना पड़े। इसमें क्या- एक शामियाना लगा दिया और व्याख्यानदाता व्याख्यान देने लगे, थोड़ी ही देर में दर्शकों की भीड़ जमा हो गई। बड़ा सहल नुस्खा है।’
‘यज्ञ भी अनेक हुए थे। मालवीय जी ने भी इन यज्ञों में भाग लिया था।’
‘मालवीय जी बड़े धर्मात्मा आदमी हैं। उनका क्या कहना! उन्हीं की बदौलत धर्म की जड़ हरी बनी हुई है।’
बौड़मपन्थी महोदय दाँत निकाल कर बोले- कहते तो आप ठीक हैं। मालवीय जी सत्य ही बड़े धर्मात्मा हैं। कई दिनों तक त्रिवेणी-तट पर पड़े रहे।
‘जरूर पड़े रहे होंगे। वह ऐसे मामलों में बहुत पड़े रहते हैं। इन्हीं बातों से तो अनेक राजे-महाराजे, सेठ-साहूकार उन पर प्रसन्न रहते हैं।’
‘ठीक बात है। धर्मात्मा से सब प्रसन्न रहते हैं।’
‘वह ऐसे धर्मात्मा हैं कि सबको प्रसन्न रखते हैं, यहां तक कि गवर्नमेंट भी उनसे प्रसन्न रहती है। गवर्नमेंट को प्रसन्न रखना कितना कठिन कार्य है, यह आप जानते ही हैं।’
‘बेशक, आप ठीक कहते हैं। जब सरकार भी प्रसन्न रहती है, तब हद हो गई।’
‘हद क्या हो गई ! बस, समझ लीजिए कि गजब हो गया।’
वह महोदय कुछ क्षणों तक ठहर कर बोले-मालवीय जी ने एक यज्ञ कराया था, जिसमें तीन लाख रुपए खर्च हुए थे।
‘अजी तीन लाख की क्या हस्ती है? यदि मिलते तो करोड़ों स्वाहा कर दिए जाते, ऐसा अवसर रोज-रोज थोड़ा ही मिलता है।’
‘मालवीय जी ने बड़ा पुण्य कमाया है। इतना पुण्य कमाया है कि रखते उठाते नहीं बन पड़ता। उनकी तो बात ही क्या, उनकी तीन पुश्त के खर्च किए भी न चुकेगा।’
‘दुबे जी, आप नहीं गए; यह अच्छा नहीं किया। जाना चाहिए था।’’
‘बात तो आप समझदारी की कहते हैं।’
‘जाते तो बड़ा पुण्य प्राप्त करते।’
‘खैर, इसका मुझे अफसोस नहीं। ये लाखों आदमी जो पुण्य की गठरियां बांध-बांध कर लाए हैं, तो क्या सब अकेले ही गटक जायेंगे। यदि थोड़ा-थोड़ा हमारे जैसे आदमियों को दे दें, तो क्या हर्ज है?’
‘आप तो दिल्ली करते हैं।’ – यह कह कर वह महोदय चले गए।
सम्पादक जी, हिन्दुओं की बौड़मपंथी का वर्णन कहां तक किया जाय? लाखों रुपए रेल में, यज्ञों में तथा संड-मुसंड साधु-संतों के भंडारों में स्वाहा हो गए। हमारे शहर से इन साधुओं के लिए अनेक नौकाएं खाद्य-सामग्री तथा वस्त्रों से लद कर प्रयागराज गई थीं। जो गरीब हैं, जिन्हें वास्तव ही सहायता की आवश्यकता है, उनकी कोई बात भी नहीं पूछता। असंख्य अनाथ बच्चे, विधवाएं तथा ऐसे लोग, जिन्हें कोई नौकरी अथवा मजदूरी नहीं मिलती, भूखों मरते हैं और हमारे सेठ-साहूकार इन साधु-संतों को, जो रात-दिन नशे में झूमा करते हैं और बहू-बेटियों का सतीत्व नष्ट करने की ताक में रहते हैं- हलवा-पूरी खिलाते हैं। यह धर्म है? यह तो महाअधर्म है। वे लोग, जो घर में स्त्रियों को सात पर्दे के अन्दर रखते हैं, प्रयाग में उन्हें नांगों का दर्शन कराने ले गए थे। क्यों? इसलिए कि उनके दर्शनों से पाप कट जाते हैं। इस मूर्खता का भी कोई ठिकाना है? इस तूफाने-बेतमीजी में सैकड़ों कुचल कर मर गए – सैकड़ों खो गए, अनेकों डूब गए और न जाने कितने बीमारी इत्यादि के ग्रास बन गए। यह लाभ हुआ! जो कुंभ-स्नान करके सकुशल आ गए, उनसे जो पूछा जाता है कि तुम्हें वहां जाने से क्या लाभ हुआ, तो कहते हैं- ‘आप क्या जानें क्या लाभ हुआ।’ बेशक हमको क्या पता मिल सकता है! वह लाभ तो ‘भगवान जी ईश्वर जी अल्लाह मियाँ’ के बही-खातों में लिखा हुआ है।
मुझे अनेक ऐसे आदमी मिले, जो कुंभ में जाने के घोर विरोधी थे; परंतु फिर भी गए। उनसे जो पूछा गया’ ‘आप तो इसके खिलाफ थे, फिर क्यों गए?’ तो बोले- ‘स्त्रियाँ न मानीं; इसलिए मजबूरन जाना पड़ा।’ कुछ लोगों ने कहा- ‘सब लोग जा रहे थे, इसलिए हम भी चले गए ।’
यह दशा है, भगवान जाने इस हिन्दू-समाज को कब बुद्धि आएगी!
भवदीय,
विजयानन्द (दुबे जी)।