झंडों का क्रेज आगामी महाकुंभ में संगम तट पर सूचना क्रांति के दौर में भी कायम है. सुदूर प्रदेशों और विदेशों के श्रद्धालु विभिन्न झंडा तकनीक झंडे को पहचान कर अपने पुरोहितों तक पहुंच जाते हैं भक्तगण अपने धर्म पुरोहितों के शिविर चिन्हों व प्रतीकों के माध्यम अपने कुल के पंडों तक पहुंचने में मिलती है. त्रिवेणी तट की आध्यात्मिक नगरी में जजमानों को पुरोहितों तक पहुंचने की पुरानी तकनीक कराती है पहचान. प्रयागराज . धर्म का क्षेत्र हो या युद्व का रीति रिवाज हो या देश दुनिया से जुड़ा कोई अन्य विषय संचारक्रांति के समक्ष नतमस्तक हैं, परन्तु धरम करम की आध्यात्मिक नगरी प्रयाग में सजने वाले महाकुंभ में संचार का माध्यम आज भी पंरपरात झंडे ही बन रहे हैं. गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती के संगम पर आयोजित महाकुंभ में पंडों के उन परंपरागत पंडालों में विभिन्न रंग और डिजाइनों के झंडे श्रद्धालुओं के लिए अपने पुरोहितों तक पहुुंचने मे मदद करते हैं. संचारक्रांति ने भले ही वैश्विक रुप ले लिया हो लेकिन यहां कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो प्राचीनकाल से चली आ रही हैं. कुछ ऐसी ही परंपराओं का साक्षी यहां के पंडों और उनके झंडो का इतिहास है.
मोबाइल, इंटरनेट के इस सूचना क्रांति के दौर में भी तीर्थराज प्रयाग में चल रहे महाकुंभ मेले में तीर्थ पुरोहित झंडा तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. श्रद्धालु विशाल मेला क्षेत्र में अपने तीर्थ पुरोहितों के शिविर की पहचान उनके झंडे को देखकर करते हैं और फिर वहां पहुंचते हैं. देश-विदेश से यहां पहुंचने वाले लाखों श्रद्धालु पूजा-पाठ और दान-पुण्य के लिए अपने पुरोहितों के पास जाते हैं. पुराहितों के पास पहुंचने के लिए न तो उन्हें फोन करते हैं और न ही किसी से पूछते हैं. श्रद्धालु अपने धर्म पुरोहितों के शिविर के झंडे को पहचान कर आसानी से वहां पहुंच जाते हैं. इन्हें प्रयागवाल के नाम से भी जाना जाता है.
सोहबतिया बाग निवासी ब्रजेंद्र गौतम बताते हैं कि श्रद्धालुओं के लिए नाम या मोबाइल नम्बर का खास महत्व नहीं है. वे अपने-अपने पुरोहितों के शिविर के झंडे पहचानते हैं और उसी को देखकर इस भव्य मेला क्षेत्र में अपने पुरोहित को आसानी से ढूंढ लेते हैं. माघमेला क्षेत्र में एक हजार से अधिक धर्म पुरोहितों के शिविर हैं. लेकिन सभी के झंडे अलग-अलग हैं और श्रद्धालु उन्हीं के जरिए उनकी पहचान करते हैं.
धूमनगंज निवासी गणेश श्रीवास्तव ने बताया कि महाकुंभ क्षेत्र में सैंकड़ों धर्म पुरोहितों के शिविर हैं. किसी पुरोहित के झंडे का निशान राधा-कृष्ण, किसी का मयार्दा पुरुषोत्तम राम, किसी का हाथी-घोड़ा, किसी का शेर, किसी का त्रिशूल, किसी का सूर्य, किसी का कलश, किसी का सिपाही है. हर श्रद्धालु को अपने धर्म पुरोहित के झंडे का निशान पता है.
धर्म पुरोहितों के झंडे के निशान वर्षो पुराने हैं और वे उसे कभी बदलने का जोखिम नहीं उठाते, क्योंकि इससे उनके जजमानों को उन तक पहुंचने में मुश्किल होगी. एक धर्म पुरोहित लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने बताया कि मेरे झंडे की पहचान राधा-कृष्ण है, जो 100 साल से अधिक पुराना है. यह झंडा मेरे पिता जी द्वारा बनाया गया था. हम उसी का अनुसरण करते आ रहे हैं. हमारे जजमान भी सैकड़ों साल से हमसे जुड़े हैं और माघ मेला हो अथवा महाकुंभ या अर्धकुंभ के दौरान वे यहां आकर हमसे ही धार्मिक कार्य सम्पादित कराते हैं. पुरोहित बताते हैं कि हर जजमान अपनी आने वाली पीढ़ी को अपने-अपने धर्म पुरोहितों के झंडे के निशान के बारे में बता देता है, जिससे उनके परिवार के सदस्यों को महाकुभ, अर्धकुंभ या माघ मेले के दौरान उन्हें ढूंढने में आसानी होती है. इन शीर्ष धर्मचयों अनुसार, मोबाइल के जमाने में अन्य लोगों की तरह ही पुरोहितों के पास भी मोबाइल होते हैं, लेकिन उनके पास आने वाले जजमान कभी उनके मोबाइल नम्बर नहीं मांगते, क्योंकि जजमानों को इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती है. ज्योर्तिविद एवं धमार्चार्य अखिलेश त्रिपाठी का कहना है कि जमाना चाहे जितना हाईटेक हो जाए लेकिन संगम पर लहराने वाले इन झंडों का महत्व नहीं बदलेगा.
दरअसल यह रंग बिरंगे झंडे पंडो का प्रतिनिधित्व करते हैं, ये स्वयं में एक इतिहास समेटे हुए हैं. पहले जमाने में जब लोग संगम क्षेत्र में आया करते थे तब यही झंडे उनके क्षेत्र यानी भारत वर्ष के विभिन्न स्थानों एवं उनके पुरोहितों का प्रतिनिधित्व करते थे. यानी आज के दौर में फोन और मोबाइल आदि की सुविधा न होने की दशा में इन झंडों के माध्यम से श्रद्धालु अपने तीर्थ पुरोहितों तक पहुंच पाते हैं. कश्मीर से कन्याकुमारी, मुम्बई से कोलकाता के सभी शहरों के अपने अपने पुरोहित संगम पर रहते हैं लोग धार्मिक संस्कार अपने ही पुरोहितों के माध्यम से सम्पन्न कराते हैं. संगम के वृहद क्षेत्र मे लगे यही झंडे उनके पंडों का प्रतिनिधित्व करते हैं. झंडे पर डोलची, तबेला, हनुमान, दीया, लक्ष्मणजी, रामजी सहित देवों अथवा प्रतीकों का चिन्ह होता है जिसके माध्यम से श्रद्धालुओं को संबंधित क्षेत्र के पंडों तक पहुंचने में सहायता मिलती है.