अशोक गौतम
माना, मैं चरित्र से शुद्ध हूं। पर इस बात का पता तो केवल और केवल मुझे है, मेरे मोहल्ले वालों को नहीं। इसलिए मेरे शुद्ध होने के बाद भी नाली में रहने वाले तक मेरी शुद्धता पर पल पल उंगली उठाते रहते हैं। वे अपनी जगह बिल्कुल सही हैं। उनको तो मेरे शुद्ध चरित्र का तब पता चले जो मेरे पास मेरे चरित्र की शुद्धता का कोई प्रमाणपत्र हो। भले ही वह कैसा भी हो। पल पल देखता हंू जो चरित्र से रंच भर भी शुद्ध नहीं वे मजे से चरित्र के एक से एक स्वदेशी विदेशी कोर्सों की डिग्रियां इधर उधर पेश करते चरित्र की शुद्धता पर एक से एक पेड व्याख्यान देते फिरते हैं। कारण, उनके पास उनका चरित्र भले न हो, पर चरित्र की एक से एकचकित कर देने वाली डिग्रियां हैं। चरित्र को आज देखता ही कौन है? चरित्र की डिग्रियों को ही सब देखते हैं। भले ही वे किसी फर्जी विश्वविद्यालय से जारी हुई हों। आज बात असली नकली की नहीं, बात डिग्रियों की है। अब मेरे पास मेरा शुद्ध चरित्र तो है ,पर चरित्र की कोई डिग्री नहीं। बिना प्रमाणपत्र वाले चरित्र को आज कोई नहीं पूछता। यही वजह है कि मेरे पास चौबीस कैरेट चरित्र होने के बाद भी चोर तक मेरे चरित्र पर शक करते हैं।
माना, मैं सच बोलता हूं। पर इस बात का पता तो केवल और केवल मुझे है, मेरे मोहल्ले वालों को नहीं। इसलिए सरासर झूठ बोलने वाले डिग्रीधारी तक मेरे सच को संदेह की नजरों से देखते हैं। उनको मेरे सच कहने का पता तब चले जो मेरे पास सच बोलने का कोई प्रमाण नहीं, प्रमाणपत्र हो। भले ही वह फर्जी हो। अपने आसपास नित देखता हूं कि जो सारा दिन एक भी सच नहीं बोलते पर सच में डिग्रीधारी होने के चलते मजे से सत्य का जीवन में महत्व पर इधर उधर धड़ल्ले से बेखौफ व्याख्यान देते फिरते हैं। तब सत्य पर व्याख्यान देते देते वे इतने भावविह्वल हो जाते हैं उनके व्याख्यान को सुनते सुनते झूठ भी द्रवित हो जाता है। कारण, उनके पास उनका सच भले न हो, पर सच की अनेकों डिग्रियां हैं। भले ही वे किसी फर्जी विश्वविद्यालय से खरीदी गई हों। जब हम किसी नकली चीज को खरीदते हैं तो नकली होने के बाद भी वह असली हो जाती है। आज बात असली नकली की नहीं, बात प्रमाणपत्र की है।
माना, मैं सहनशील हूं। पर इस बात का पता तो केवल और केवल मुझे है, मेरे मोहल्ले वालों को नहीं। इसलिए सहनशीलता में डिग्रीधारी खुलेआम एक दूसरे का गला काटते मेरी सहनशीलता को संदेह की नजरों से देखते हैं। मेरे पास सहनशीलता की कोई डिग्री न होने चलते भाई लोग तक मेरी सहनशीलता पर संदेह करते हैं। वे भी सच्चे हैं। उनको मेरी सहनशीलता का पता तब तो चले जो मेरे पास मेरी सहनशीलता का कोई प्रमाणपत्र हो। भले ही वह फर्जी हो। अपने आसपास नित देखता रहता हूं जो बात बात पर आग बबूला हो जाते हैं वे मजे से सहनशीलता में उपाधिधारी सहनशील जीवन का समाज में महत्व पर इधर उधर धायं धायं व्याख्यान देते फिरते हैं। कारण, उनके पास उनकी सहनशीलता भले न हो, पर सहनशीलता में वे डिग्रीधारी हैं। भले ही वह किसी फर्जी विश्वविद्यालय से जारी हुई हो। आज बात असली नकली की नहीं, बात प्रमाणपत्र की है।
आखिर मैं तथाकथित प्रामाणिक शुदधों के तानों उलाहनों से तंग आकर केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की तमाम चेतावनियों को नकारता शुद्ध होने के बाद भी शुद्ध होने का प्रमाणपत्र लेने वहां जा पहुंचा। मेरी तकदीर ही अच्छी थी कि तब बीच में न कोई भगदड़ मची और न ही कहीं जमा लगा। बिसलेरी पीने के ही काम आई। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को टेस्ट करते कपड़े खोले और पानी में उतर गया। पानी में वायरस हो तो होता रहे। वायरस अपने यहां कहां नहीं? मन मन तो वायरस है। सबसे पहले अपने शुद्ध होने का प्रमाणपत्र जुटाने को कपड़े खोलते ही एक हाथ से नाक पकड़ दूसरे हाथ से वीडियो बनाई। दो चार फोटो लिए।
और जनाब! मैंने अपने नहाते हुए की वीडियो बनाते पूरी तरह अपने को प्रामाणिक शुद्ध किया। दिल खोलकर शुद्ध किया। हर कोने से शुद्ध किया। अगल बगल से शुद्ध किया। आजू बाजू से शुद्ध किया। यह जानते हुए भी कि मात्र नहाने से कोई शुद्ध नहीं हुआ करता। पर यह सोचने वाला मैं अकेला था। अकेला लाख सच्चा होते हुए भी सरासर झूठा कहलाता है। आज सच झूठ का फैसला सच झूठ से नहीं, बहुमत से होता है।
ज्यों ही मैंने अपने शुद्ध होने के प्रामाणिक फोटो, वीडियो अपनी फेसबुक वॉल पर फोटो डाले तो कल तक मेरी शुद्धता पर शक नहीं, पूरा शक करने वाले शुद्ध! शुद्ध! चिल्ला उठे। जब वे फेसबुक, व्हाट्सएप पर मेरे प्रामाणिक शुद्धिकरण पर मुझे बधाइयां देने लगे तो मत पूछो मेरा शुद्धिकरण किस चरम पर चला गया। काश! मैं बहुत पहले शुद्ध के साथ साथ प्रामाणिक शुद्ध भी हो गया होता!