संजय सक्सेना
देश की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अब छात्र संगठनों, स्कूल कालेजों और विश्वविद्यालयों से युवा छात्र नेताओं की पौध नहीं तैयार होती है. आम युवा पीढ़ी की भी राजनीति में रूचि घटती जा रही है. यहां तक की देश के आगे ले जाने के लिये होने वाली समसामयिक राजनैतिक चर्चाओं से भी यह दूर रहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से इस बात पर चिंता जता कर समाज को आईना दिखाने का काम किया है. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक लाख गैर-राजनीतिक युवाओं को जन प्रतिनिधि के रूप में राजनीति में लाने का आह्वान किया. उनको लगता है कि ऐसा करने से जातिवाद और वंशवाद की राजनीति को खत्म करने में मदद मिलेगी. मोदी का यह कहना बिल्कुल सही है कि यह युवा अपनी पसंद की किसी भी पार्टी में शामिल हो सकते हैं, जरूरी नहीं कि कोई एक ही पार्टी हो. पीएम मोदी को यह बात इस लिये कहना पड़ी क्योंकि आज का युवा राजनीति से विमुख हो रहा है. राजनीति के क्षेत्र में नये नवेले जन प्रतिनिधि आयेगें तो इससे निश्चित ही राजनीति का स्तर बढ़ेगा. वह लीक से हट कर राजनीति करेंगे.पीएम ने जो कहा है संभवता देश की भी यही इच्छा है,क्योंकि वह भी परिवारवाद और वंशवाद की रानजीति से ऊब चुका है. यह वह युवा होंगे जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं होगी. उनके (युवाओं के) माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, भतीजे कभी भी किसी भी पीढ़ी में राजनीति में नहीं रहे होंगे तो ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं की सोच भी अलग होगी. यह युवा चाहे पंचायत के लिए या फिर नगरपालिका, जिला परिषद या विधानसभा या लोकसभा के लिये चुनाव लड़े,इससे देश को ही फायदा होगा. सबसे बड़ी बात इससे जातिवाद और वंशवाद की राजनीति से छुटकारा मिलेगा.
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मौजूदा दौर में बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के नेताओं का जैसा व्यवहार दिख रहा है, जिस तरह की भाषा का वह इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे लगता नहीं कि यह नेता राष्ट्र के लिए सुचिंतित और परिपक्व भूमिका निभाने को तैयार हैं. चुनावी अभियान में तो भाषाई मर्यादाएं तार-तार होती ही रही हैं. लोकतंत्र के मंदिर में भी यही नजारा देखने को मिलता है. झूठ बोलना और जनता को बरगलाना- भड़काना तो राजनीति की एक जरूरत बन गया है. चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने वाला राजनीतिक तंत्र जिस तरह चिंतन और सोच के स्तर पर निचले पायदान पर पहुंच गये है, उसकी वजह से यह मान लेने में कोई बुराई नहीं है कि राजनीति में अब सुचिता बेईमानी हो गई है. हमारे नेता यह मानने को तैयार ही नहीं है कि सियासी संग्राम में भाषाई परिपक्वता की कमी को अनदेखा करना चाहिए, लेकिन क्या व्यापक राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी चलताऊ और स्तरहीन रवैया अपनाया जाना चाहिए? तमाम दलों के नेताओं का किसी घटना की निंदा या समर्थन अपनी राजनीति के हिसाब से करना या नहीं करना देश और समाज दोनों के लिये खतरनाक है. समाज के एक वर्ग के साथ अपना जुड़ाव दिखाना और दूसरे वर्ग को उपेक्षित रखना समृद्ध लोकतंत्र की निशानी नहीं है. इसका ताजा नजारा तब देखने को मिला जब बांग्लादेश में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई शेख हसीना सरकार का सैन्य तख्तापलट हो गया. बांग्लादेश के घटनाक्रम के बाद विपक्षी खेमे में मोदी सरकार के खिलाफ बदजुबानी की जैसे प्रतियोगिता चल निकली.
याद कीजिए मणिशंकर अय्यर को. वह पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों से मोदी को सत्ता से हटाने में सहयोग की मांग कर चुके हैं. सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने जो बयान दिया, वह भी राष्ट्र की सामूहिक भावना पर चोट करता है. उन्होंने कहा कि अपने तानाशाह को भी याद रखना चाहिए कि जनता ऐसे फैसला लेती है. आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने तो यहां तक कहा कि जो तानाशाही करेगा, उसे देश छोड़कर जाना होगा. मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने बयान दिया कि बांग्लादेश की तरह भारत की जनता भी पीएम आवास और गृहमंत्री के आवास में घुसेगी. उद्धव ठाकरे के प्रमुख सिपहसालार संजय राउत ने कहा कि बांग्लादेश में जो हुआ, उससे देश के सत्ताधारी सबक लें. फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जैसा हाल हसीना का हुआ, हर तानाशाह का यही हाल होगा. कांग्रेस की प्रवक्ता रागिनी नायक तो मीम बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को व्यंग्य में समझाने लगीं कि दोस्त यानी हसीना गईं, अब आप बचकर रहो. वह भूल गईं कि शेख हसीना प्रधानमंत्री मोदी की नहीं, भारत की दोस्त रही हैं. उन्हें लंबे वक्त तक शरण उनकी पार्टी की नेता इंदिरा गांधी ने भी दी थी.
यह भी न भूलें कि हाल तक शेख हसीना सोनिया गांधी और राहुल गांधी से भी गर्मजोशी से मिलती रहीं थीं. यह वह नेता हैं जो राजनीतिक रूप से मोदी और उनकी सरकार का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं और जनता भी ऐसे नेताओं को अपना जनप्रतिनिधि चुनने से परहेज करती है.इसीलिये ऐसे तमाम नेता मीडिया या अन्य संचार माध्यमों के द्वारा विवादित बयान देकर सुर्खियां बटोरने की साजिश रचते रहते हैं. यह नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिये संवैधानिक सस्थाओं को भी निशाने पर लेने से परहेज नहीं करते है. सबसे खतरनाक खेल यह चल रहा है कि यह लोग पहले तो र्सावजिनक रूप से विवादित बयान देते हैं और जब मानहानि के किसी केस में फंसते हैं तो चुपचाप माफी मांगकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. अपने देश के उद्योगपतियों को नीचा दिखाना, चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा धूमिल करना,देश में अव्यवस्था फैलाने वाली विदेशी संस्थाओं के बयान और रिपोर्ट पर देश को बदनाम करना इनका एजेंडा बन गया है. यहां तक की न्यायपालिका भी इनसे नहीं बची हैं.
विपक्षी दलों का एक बड़ा धड़ा मोदी और अमित शाह को तानाशाह बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता है. साथ ही उनके खिलाफ बदजुबानी करने का भी अवसर हाथ से जाने नहीं देता. सवाल उठता है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये किसी नेता को तानाशाह बताना सही है. फिर मंचों से खुलेआम उसकी कटु आलोचना हो, कई बार वह गाली में तब्दील हो जाये ऐसा दुनिया में अब तक तो नहीं देखा गया है कि तानाशाह की लानत-मलामत की जाए, उसे अशोभनीय भाषा से निशाना बनाया जाए,फिर भी ऐसे आरोपी खुले में घूमते रहे, लेकिन भारत में ऐसा हो रहा है. यह शर्मनाक और निंदनीय दोनों ही है. विपक्षी दलों के नेता बाबा साहब के संविधान को अपना राजनैतिक मोहरा तो बनाते हैं लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि राष्ट्र के प्रतिनिधित्व की बात करें या प्रतीक की, केंद्रीय सत्ता को ही संवैधानिक रूप से देश का प्रतिनिधि या प्रतीक माना जाता है. लिहाजा अंतरराष्ट्रीय मामलों पर केंद्र सरकार की राय को ही राष्ट्र की राय माना जाता है.
कुछ समय पहले तक अंतरराष्ट्रीय और कूटनीतिक मामलों पर समूचा देश एक जैसी राय रखता था, लेकिन जब से राहुल गांधी,अखिलेश यादव,तेजस्वी यादव जैसे नेताओं ने परिवारवाद की राजनीति की बागडोर संभाली है तब से सियासत का स्तर काफी गिरा है. आम आदमी पार्टी भी इसके लिये ओवैसी जैसे नेता भी कम कसूरवार नहीं है. ऐसा नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले भी विपक्ष के सुर सरकारी सुर से मिलते ही रहते थे, लेकिन कम से कम तमाम दलों के नेता इसे सार्वजनिक रूप से जाहिर करने से बचता था. कुछ मतभेद हुए भी तो उन्हें सीमाओं के अंदर ही दूर कर लिया गया, लेकिन राष्ट्र एक सुर में बोलता रहा, लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं. अब सवाल सही-गलत का नहीं विरोध के लिये विरोध करने का होता है.
खैर, सत्ता पक्ष को भी इसके लिये क्लीन चिट नहीं दी जा सकती है इसके लिए किंचित दोषी सत्ता पक्ष भी है. क्योंकि अब वह विपक्ष की राय लेना ही उचित नहीं समझती है. होना तो यह चाहिए कि देश और लोकहित में राष्ट्रीय स्तर पर एक राय रखी जाए. अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान किया जाए, लेकिन अब तो जिम्मेदार लोग गालियां तक देने में संकोच नहीं कर रहे हैं. बांग्लादेश का मामला कोई पहला मौका नहीं है, जब सियासत की ओर से स्तरहीन बयानबाजी की गई हो.
इजरायल और हमास के आतंकवादियों के बीच जंग में भी यही देखा गया था. जब कट्टपंथियों ने ही नहीं कांगे्रस जैसी राजनैतिक पाटिंर्यों ने भी इसे फिलिस्तीन से जोड़कर मुसलमानों पर अत्याचार बताना शुरू कर दिया था. याद करें कि विनेश फोगाट को अयोग्य ठहरा दिए जाने पर कैसे बचकाने बयान दिए गए. किस राज्य के खिलाड़ियों ने मैडल जीता, किसने नहीं, इसका विवाद खड़ा किया जाता है. हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के आधार पर सेबी पर उंगली उठाई जाती है. अपने देश के उद्योगपतियों पर हमला बोला जाता है.