शहाब तनवीर शब्बू
बिहार में 18 फीसदी आबादी होने के बावजूद तेरह और पांच फीसदी वाले नेताओं को यहां के मुसलमान अपना नेता मान गर्व महसूस करते हैं। यह भी आश्चर्यजनक बात है कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद इस कौम ने अपने अंदर से कोई अपना लीडर नहीं बनाया जो उनकी आवाज बनकर उनके हक और हकूक की बात खुले मंच से कर सके। बिहार में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी होने के बावजूद यह यहां बदहाली का शिकार हैं। एक तरह से देखा जाए तो इसके लिए यह खुद ही जिम्मेदार हैं। अलग-अलग तबकों और फिरकों में बंटे होने की वजह से ही देवेश ठाकुर और संजय झा जैसे नेता इन्हें अपने दरवाजे से दुत्कार कर भगा रहे हैं। सांसद देवेश ठाकुर और संजय झा उसी जनता दल युनाइटेड के नेता हैं जिन्हें मुसलमान दिल खोलकर वोट देते आए हैं। लेकिन जब मुसलमानों के काम करने की बारी आयी तो साफ-साफ कह दिया कि मुसलमानों ने हम लोगों को वोट नहीं दिया इस लिए हम उनका काम नहीं करेंगे। यह हालात तबसे पैदा हुए हैं जबसे जदयू ने भाजपा के साथ मिलकर बिहार में अपनी सरकार बनाई है। जबकि जदयू के नेता और बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार मुसलमानों का वोट पाने के लिए हर तरह की जुगत में लगे रहते हैं। परंपरागत तौर पर बिहार में मुस्लिम वोटर जदयू या फिर राष्ट्रीय जनता दल के साथ हैं। जदयू के साथ होने के बावजूद मुसलमानों के खिलाफ उनके नेताओं के इस तरह से जहरीले बोल निकल रहे हैं। यह भी मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि चुनाव के समय जिस पार्टी ने मुसलमानों के जख्मों को थोड़ा भी सहलाया यह उसी के पीछे हो लेते हैं।
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मुसलमानों की इस बदहाली पर विश्व बैंक के पूर्व निदेशक एवं बिहार हिकमत फाउंडेशन के अध्यक्ष पूर्व आईएएस अधिकारी सैयद गुलरेज होदा कहते हैं कि बिहार में अठारह फीसदी आबादी होने के बावजूद तेरह और पांच फीसदी वाले नेताओं को यहां के मुसलमान अपना नेता मान उनके पिछलग्गू बनने में ज्यादा गर्व महसूस करते हैं।यह भी आश्चर्यजनक बात है कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद इस कौम ने अपने अंदर से कोई अपना लीडर नहीं बनाया जो उनकी आवाज बनकर उनके हक और हकूक की बात खुले मंच से कर सके।
गुलरेज होदा आगे कहते हैं कि मुसलमान मजहब की बात चाहे जितना कर ले पर उसे आत्मसात करने की बारी आती है तो वे प्राय: बगलें झांकने लगते हैं। इस्लामिक अवधारणा है कि तीन लोग जब एक जगह जमा हों तो उनमें से किसी एक को अपना कायद (नेता)चुन लें। पर इस प्रदेश में हालत यह है कि यहां हर कोई इमाम बनना चाहता है। नतीजा साफ है। टांग खिंचाई राजनीति ने समुदाय के बीच से कभी अपना सशक्त नेतृत्व उभरने नहीं दिया। मूल वजह यह रही कि तथाकथित मुस्लिम नेता मुसलमानों की रहनुमाई की अपेक्षा अपने दलीय संगठन के हितसाधने, खुद और समुदाय का इस्तेमाल करने देने में अधिक व्यस्त रहे। गौरतलब है कि सालों पहले न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता वाली समिति ने मुसलमानों की दशा पर जो रिपोर्ट पेश की थी उससे हालात को और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि मुसलमान भारत के विकास की सीढ़ी के सबसे नीचले पायदान पर हैं। हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के मुकाबले बहुत नीचे दलितों के बराबर हैं। मुसलमानों की बदहाली दर्शाता यह एक ऐसा आईना है जिसमें न सिर्फ ‘सेक्यूलर भारत’ की तस्वीर नजर आती है, बल्कि उन मुस्लिम संगठनों व नेताओं का चेहरा भी दागदार नजर आता है जो कौम की रहनुमाई का दंभ भरते रहे हैं। इस सच के सामने आने के बाद भी सिर्फ लफ्फाजी से काम लिया जाता रहा है। बिहार-झारखंड-उड़ीसा के मुसलमानों की प्रतिनिधि संगठन इमारत-ए-शरिया ने रिपोर्ट को लागू कराने का बीड़ा उठाकर सियासतदानों की बेचैनी बढ़ा दी थी खलबली इसलिए मची कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट पर दो दिवसीय कांफ्रेंस आयोजित कर पहली बार इमारत ने मुस्लिम राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप किया था। उसकी अप्रत्याशित पहल से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित अन्य मुस्लिम संगठनों में भी हलचल पैदा हो गयी थी, लेकिन अब यह पुरानी बातें हो चुकी हैं। अब तक 22 करोड़ मुसलमानों की नुमाईंदगी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल, मुस्लिम मजलिस -ए- मुशावरत सरीखे संगठन करते रहे हैं जो आज पूरी तरह से मुसलमानों के मशायल से आंखें मूंदे हुए हैं। जबकि इन संगठनों के संचालन में बिहार के लोगों की प्रभावी भूमिका रही है। लेकिन आज हालात बिल्कुल उलट है। आज की तारीख में इस कौम का कोई नेता नहीं है जो इनके आंसू पोंछ सके।
यह निर्विवाद है कि आम मुसलमान उस नेता और संगठन के दीवाने रहे हैं जो समुदाय के मसले को बेखौफ अंदाज में उठाया करते हैं या करते रहे हैं। एक समय था जब सीमांचल में तसलीमुद्दीन का सिक्का इसलिए जमा रहा कि उन्होंने फटेहाल मुसलमानों की रहनुमाई की। उनकी पीड़ा को जुबान दी पर यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि परिवारपरस्ती के चलते वह अपनी लोकप्रियता को सीमांचल की सीमा से बाहर नहीं ले जा सके जिसके सबब उत्तर बिहार और मध्य बिहार के मुसलमानों में मकबूल नहीं रहे। परिवारवाद की राजनीति के कारण ही मुस्लिम समुदाय ने मुकम्मल रूप से उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया। एक धारणा यह भी बनी कि आम मुस्लिम समस्या को उन्होंने तभी मुद्दा बनाया जब परिवार हित सधता नहीं दिखा। हित सधते ही उनके द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दे गौण पड़ जाते रहे। तसलीमुद्दीन की मौत के बाद उनके परिवार से भी उनके सिपहसालारों और आम मुसलमानों का मोह भंग हो गया।
इसी तरह कभी सिवान से राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रहे बाहुबली स्वर्गीय मोहम्मद शहाबुद्दीन जब राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद से आंख में आंख डालकर बात करने का साहस दिखाया करते थे तो मुसलमानों की युवा पीढ़ी में बतौर लीडर उभार पाने लगे थे। उनका दुर्भाग्य यह रहा कि अपराधकर्मों में आकंठ डूबे रहने या एक रणनीति के तहत उनकी छवि को इसी रूप में प्रस्तुत करने की साजिश के चलते सीवान की समस्याओं में ही वह अधिक उलझे रह गये। प्रदेशभर के मुसलमानों का नब्ज टटोलने की उन्होंने कभी जरूरत महसूस नहीं की। नतीजतन, युवा पीढ़ी भी उनसे विमुख हो गयी। आपराधिक छवि एक बड़ी वजह रही जिसके चलते प्रबुद्ध मुसलमानों को वह कभी रास नहीं आये। इन सब कारणों से आम धारणा बनी कि उन्हें मुसीबत में मुसलमान तो खूब याद आये पर उनकी रहबरी से वह प्राय: भागते रहे। समुदाय को उनसे विरक्ति तब हुई जब लालू प्रसाद से ‘माय’ का एक प्रमुख अंग अपने अधिकारों की खातिर जेहाद की तैयारी में था तो शहाबुद्दीन ने उन्हें ‘बड़ा भाई’ कह मुस्लिम युवाओं के मंसूबों पर पानी फेर दिया। हालांकि इस अपरिपक्व राजनीति का सर्वाधिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ा। नतीजे के तौर पर उन्हें अंतिम समय में अपने घर की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई। कोविड के समय उनकी मौत दिल्ली में हो गयी। और जिस लालू परिवार के लिए उन्होंने ज़िन्दगी भर काम किया उसी परिवार ने उनके साथ-साथ उनके परिवार से भी मुंह मोड़ लिया। शहाबुद्दीन की मौत के बाद मुसलमानों की युवा पीढ़ी को उनके पुत्र ओसामा शहाब में मोहम्मद शहाबुद्दीन की छवि नजर आने लगी थी थी। लेकिन ओसामा शहाब भी सियासी साजिश का शिकार हो गए। उनकी भी छवि एक बाहुबली के रूप में सामने आते ही दर्जनों मुकदमों में उन्हें फंसा दिया गया। नतीजा सबके सामने है। आज की तारीख में वह भी हाशिए पर चले गए।
बिहार में शकील अहमद खां, इलियास हुसैन, शाहनवाज हुसैन, अबदुलबारी सिद्दकी, जाबिर हुसैन और अली अशरफ फातमी जैसे नेता मुसलमानों के बीच ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर पाए जिससे के यह कौम के रहनुमा बन पाते और पूरी मुस्लिम कौम इनके पीछे चलती।
झारखंड के अलग होने से पहले बिहार और यूपी मिलकर केंद्र की में सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाती थी और इन दोनों राज्यों से मुस्लिम सांसद भी ठीक-ठाक संख्या में जीतकर जाते थे। लेकिन अब इन दोनों राज्यों की वह हैसियत नहीं रह गई है। बिहार की स्थिति तो और भी खराब है। पिछले तीन विधानसभाओं और संसद के नतीजों पर नजर डालें तो समझ आएगा कि मुसलमानों को किस तरह हाशिए पर धकेला जा रहा है। 2014 में बिहार से चार मुस्लिम जीत कर संसद पहुंचे। 2019 में यह संख्या घटकर एक रह गई और आश्चर्यजनक रूप से 2024 में भी वही सीट और वही उम्मीदवार रहे। यह सीट भी किशनगंज और कांग्रेस की है जहां से मुस्लिम के अलावा किसी और का जीतना लगभग नामुमकिन है। इसी तरह पिछली तीन विधानसभाओं के नतीजे देखकर भी हैरानी होती है। 2010 में 19 मुस्लिम विधानसभा सदस्य बने, 2015 में 23 मुस्लिम विधानसभा पहुंचे और 2020 में 19 मुस्लिम जीते और अब अगले साल फिर से विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। यह भी गौरसतलब है कि 2015 में जो 23 मुस्लिम जीते थे उस समय बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव एक साथ थे। जब दोनों अलग हो गए यह संख्या फिर 19 पर रुक गई।
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बिहार का अगला विधानसभा चुनाव नवंबर 2025 में होना है लेकिन इस समय सभी राजनीतिक दलों की ओर से कुछ ऐसी गतिविधियां तेज हो गई हैं जिससे लग रहा है कि किसी भी दिन राज्य में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो सकती है। दरअसल, सत्ताधारी पार्टी जनता दल युनाइटेड के सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल के दिनों में कुछ ऐसे बयान दिए हैं जिससे ऐसा लग रहा है कि राज्य में विधानसभा का चुनाव कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही विधानसभा को भंग कर विधानसभा चुनाव की घोषणा कर दी जाएगी। लेकिन नीतीश कुमार की ओर से इस तरह का कोई ठोस संकेत नहीं दिया जा रहा है। हालांकि राज्य में विपक्षी गठबंधन की ओर से ऐसा कहा जा रहा है कि केंद्र से हरी झंडी नहीं मिलने के कारण नीतीश कुमार चुप हैं। इसमें कोई शक नहीं कि संसदीय चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार चाहते थे कि बिहार विधानसभा का चुनाव भी हरियाणा और जम्मू कश्मीर चुनाव के साथ ही हो लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब नीतीश कुमार महाराष्ट्र और झारखंड के साथ ही बिहार का विधानसभा चुनाव चाहते हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी जो इस समय बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दल यूनाइटेड सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल है राज्य में वह ऐसा नहीं चाहती है। स्थिरता पाने के लिए पार्टी ने अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम शुरू किए हैं। वही एनडीए में शामिल जनता दल युनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो चिराग पासवान और हम के संरक्षक एवं केन्द्रीय मंत्री जीतन राम मांझी काफी सक्रिय हो गए हैं और वह लगातार अपने कार्यकतार्ओं को यह संदेश दे रहे हैं कि विधानसभा चुनाव कभी भी संभव है।
दूसरी ओर कभी नीतीश कुमार और लालू के करीबी रहे ‘पीके’ यानी प्रशांत किशोर की नई राजनीतिक पार्टी जन सुराज बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए पिछले छह महीने से सक्रिय है और उन्होंने अक्टूबर की शुरूआत में ही अपनी पार्टी की घोषणा भी कर दी। अगले विधानसभा चुनाव में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रशांत प्रदेश स्तर पर विशेष अभियान चला रहे हैं। खास तौर से वह मुस्लिम समुदाय में अधिक सक्रिय दिख रहे हैं। दरअसल, प्रशांत की कोशिश है कि बिहार में ज्यादातर मुसलमान राष्ट्रीय जनता दल यानी लालू प्रसाद यादव के साथ हैं। इसीलिए जन सुराज की ओर से ऐलान किया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए जाएंगे। जाहिर सी बात है कि अगर इस पार्टी के जरिए बड़ी संख्या में मुसलमानों को मैदान में उतारा जाएगा तो वोट बंट जाएंगे और इसका फायदा जिसे मिलेगा वो है भारतीय जनता पार्टी। यह भी स्पष्ट है कि प्रशांत किसके लिए काम कर रहे हैं। बहरहाल बिहार में मध्यावधि विधानसभा चुनाव हो या तय समय पर यह तय है कि इस बार राज्य विधानसभा चुनाव में सभी की नजरें मुस्लिम वोटों पर होंगी और मुस्लिम वोटों में बिखराव की साजिश रची जा रही है। लेकिन देखा जा रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल भी इस कोशिश में लग गई है कि मुसलमानों के वोटों में कोई गड़बड़ी न हो। जनता दल युनाइटेड की ओर से भी यह कोशिश की जा रही है कि मुसलमानों का झुकाव प्रशांत किशोर की पार्टी की ओर नहीं हो। अगर मुस्लिम वोट टूट गया और वह जन सुराज की ओर चला गया तो उसे भी भारी नुकसान होगा। क्योंकि हाल के दिनों में नीतीश कुमार को मुस्लिम वोट भी मिलते रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नीतीश कुमार राज्य में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार चला रहे हैं लेकिन वह बीजेपी की कई नीतियों को राज्य में लागू करने से इनकार करते रहे हैं जिससे मुसलमानों के बीच उनकी छवि अभी बेहतर है। बिहार की राजनीति में मुसलमानों का वोट निर्णायक है। अगर मुसलमान सचमुच जन सुराज की ओर मुड़े और मुस्लिम वोट में गड़बड़ी हुई तो संभव है कि इसका फायदा बीजेपी को होगा। इसलिए राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल युनाईटेड की कोशिश है कि मुसलमानों का वोट नहीं बिखरे और खास तौर पर जन सुराज की ओर न जाए। क्योंकि जनता दल युनाइटेड के नेता मुख्यनंत्री नीतीश कुमार भी अंदरुनी तौर पर इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि भारतीय जनता पार्टी राज्य में अपनी सीटें बढ़ाए। क्योंकि भाजपा जनता दल यूनाइटेड के साथ बनी रहना तो चाहती है लेकिन विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर भी उभरना चाहती है।
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी के सभी बड़े नेता चाहते हैं कि बिहार की बागडोर नीतीश कुमार के हाथों में नहीं बल्कि पूरी तरह से बीजेपी के हाथों में हो। लेकिन राजनीति की इस निजी चाल से नीतीश कुमार भी अनभिज्ञ नहीं हैं। वे अंदरखाने ऐसी रणनीति भी तैयार कर रहे हैं कि किसी भी कीमत पर भाजपा को राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नहीं बनने दें और सत्ता उनके हाथ में रहे। लेकिन बीजेपी पिछले विधानसभा चुनाव की तरह मुस्लिम वोटों में भी चिराग पासवान के सहारे सेंध लगाने की कोशिश कर रही है ताकि नीतीश कुमार को कमजोर किया जा सके। संक्षेप में कहें तो इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में अगर मुस्लिम मतदाताओं ने राजनीतिक सूझबूझ से काम नहीं लिया और भावनात्मक प्रलोभन में नहीं आये जिसका प्रयास किया जा रहा है तो न सिर्फ मुस्लिम राजनीति का बेड़ा डूब जायेगा बल्कि बिहार की राजनीति की दशा और दिशा भी बिगड़ जायेगी।
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इन दिनों बिहार की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चित नाम एवं अपनी सूझ बूझ और रणनीति से सत्ता की कुर्सी तक कई बड़े नेताओं को पहुंचा चुके प्रशांत किशोर को आड़े हाथों लेते हुए लालू और तेजस्वी के करीबी राजद अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष पूर्व विधायक डाक्टर अनवर आलम कहते हैं कि पीके से कुछ होने वाला नहीं है और ना ही राजद को उनसे कोई खतरा है। जनता समझ चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए ही प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी बनायी है, और वह भाजपा के बी टीम के रूप में काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार लगातार बिहार में शासन कर रहे हैं और अपने आप को सुशासन बाबू कह रहे हैं। जब नीतीश कुमार बिहार में अपने शासनकाल में एक भी फैक्ट्री नहीं खोल पाए तो प्रशांत किशोर क्या कर पाएंगे? प्रशांत सिर्फ युवाओं को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। प्रशांत पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं इसकी भी जांच होनी चाहिए कि इतना पैसा उनके पास कहां से आ रहा और कौन उन्हें फंडिंग कर रहा है। चुनाव में उन्हें अपनी औकात का पता चल जाएगा। इधर अभी तक लालू यादव या नीतीश कुमार जैसे नेताओं के पीछे पिछलग्गू बन कर घूमने वाले मुसलमानों के बीच कोई मजबूत मुस्लिम नेतृत्व नहीं होने की वजह से मुसलमान भी पशोपेश में हैं कि हम किधर जाएं?।