शहाब तनवीर शब्बू
झारखंड विधानसभा चुनाव को लेकर बिहार के चार बड़े दल के दो दर्जन से अधिक नेता चुनावी समर में पसीना बहा रहे हैं। झारखंड में अपने गठबंधन और दल के प्रत्याशियों की जीत सुनिश्चित करने में मंत्री से लेकर विधायक और संगठन के प्रमुख नेताओं को दलों ने जिम्मेदारी सौंपी है जो झारखंड की गलियों में दौड़ लगा रहे हैं ताकि उनकी इज्जत उनके उम्मीदवारों के जीत के साथ बची रहे। वहीं झारखंड की जनता के सामने पांच साल बाद फिर वह मौका आ गया है जब वह 81 विधायक और नई सरकार का चुनाव करेंगे। झारखंड में विधानसभा की कुल 81 सीटें हैं जिनमें 28 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं।
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आदिवासी बहुल राज्य में मुद्दों की कमी नहीं, लेकिन कम से कम 4 ऐसे बड़े फैक्टर हैं, जिनसे चुनाव का नतीजा तय होने जा रहा है। चुनाव का नतीजा काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता किसके वादे पर कितना भरोसा करती है। भाजपा की अगुआई में एनडीए और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर से एक से बढ़कर एक लुभावने वादे किए जा रहे हैं। इनमें से प्रमुख है महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक मदद। झामुमो सरकार ने इसी साल मुख्यमंत्री मंईयां सम्मान योजना की शुरूआत की। इसके तहत महिलाओं को 1000 रुपए मासिक सहायता दी जा रही थी। भाजपा ने एनडीए सरकार बनने पर 2100 रुपए मासिक देने का वादा किया तो झामुमो ने आगे निकलने की होड़ में 2500 रुपए देने का ऐलान कर दिया है। हेमंत सोरेन सरकार ने इस प्रस्ताव को कैबिनेट से पास भी कर दिया है। महिला मतदाताओं को चुनाव में अहम फैक्टर माना जा रहा है जिसे लेकर यह सारे वायदे किए जा रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड खासकर संथाल परगना में कथित तौर पर बांग्लादेशी घुसपैठ को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अक्टूबर के पहले सप्ताह में हजारीबाग की रैली में इस मुद्दे को जोर शोर से उठाया। उन्होंने कहा कि झारखंड में इस बार रोटी, बेटी और माटी बचाने की लड़ाई है। उन्होंने मंच से कहा कि झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से आदिवासियों की संख्या कम हो रही है। इसी तरह भाजपा के प्रभारी और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे को आक्रामकता के साथ उठा रहे हैं जबकि झारखंड भाजपा इस मुद्दे को आदिवासियों तक पहुंचाने के लिए गांव-गांव, गली-गली का दौरा कर रही है। झारखंड का चुनावी नतीजा इस बात पर भी निर्भर करेगा कि जनता भाजपा की ओर से मौजूदा सरकार पर लगाए गए भ्रष्टाचार- घुसपैठ जैसे आरोपों पर विश्वास करती है या फिर हेमंत सोरेन के विक्टिम कार्ड पर। एक तरफ जहां भाजपा झामुमो और कांग्रेसी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रही है तो दूसरी तरफ जेल से निकलने के बाद हेमंत सोरेन विक्टिम कार्ड खेलने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। झारखंड में पिछले पांच सालों में लगातार ईडी और सीबीआई की छापेमारी चलती रही, जिसमें कई बार नोटों के ढेर मिल चुके हैं जिसे पूरे देश देखा। चुनावी मुद्दों पर खुल कर बात करते हुए भाजपा के झारखंड चुनाव प्रभारी सह केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि भाजपा भ्रष्टाचार मुक्त शासन की पक्षधर है। इंडिया गठबंधन ने झारखंड को कंगाल बना दिया है। केंद्र सरकार ने राज्य के विकास के लिए जो राशि झारखंड को भेजी थी, उस राशि की बंदरबांट मुख्यमंत्री हेमंत व उनके सहयोगी मंत्रियों ने कर ली। ऐसे भ्रष्टाचारी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। झारखंड में जब भाजपा की सरकार बनेगी, तो भ्रष्टाचारियों को जेल भेजा जायेगा। वह कहते हैं कि राज्य के समुचित विकास के लिए डबल इंजन की सरकार बनाने की जरूरत है तभी झारखंड के साथ साथ आदिवासियों का भी विकास होगा।
झारखंड में सत्ता की असली चाबी आदिवासियों के हाथ में मानी जाती है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ा झटका आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर ही लगा था। पार्टी 28 आरक्षित सीटों में से 26 पर चुनाव हार गई थी। माना गया था कि प्रमुख आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी के अलग पार्टी बनाकर लड़ने से भाजपा को नुकसान हुआ। हालांकि बाद में भाजपा में उनकी वापसी हो गई और इस समय वह भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं। हालांकि हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में भी आदिवासी सीटों पर भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं रही। आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने जो कार्ड चला था उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इस बार झारखंड में ही होगी। दूसरी तरफ हेमंत सोरेन आदिवासी और मूलवासी के मुद्दे को पूरे जोरशोर से उठा रहे हैं। झारखंड के चुनावी प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे भाजपा के बड़े बड़े दिग्गज नेताओं के आने पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं कि भाजपा झारखंड को दुधारू गाय समझती है। दूध निकाल लेती है पर खाने के लिए चारा नहीं देती है। भाजपा पूंजीपतियों की पार्टी है। इस चुनाव में एक ओर गरीब, मजदूर और किसान हैं, दूसरी ओर धनवान और पूंजीपतियों की जमात है। हेमंत आगे कहते हैं कि भाजपा ने चुनाव प्रचार में हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लगाया है। इनको रोकने के लिए अकेले हेमंत सोरेन खड़ा है। झारखंड में विकास का काम तेजी से हो रहा था। इससे घबराकर समय से पहले ही चुनाव कराया जा रहा है। वह आगे कहते हैं कि केंद्र की सभी संस्थाएं भाजपा की कठपुतली बनकर काम कर रही हैं। भाजपा का षड्यंत्र काम नहीं आएगा। राज्य में फिर बहुमत से महागठबंधन की सरकार बनेगी।
झारखंड में दो चरण में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 13 और 20 नवंबर को झारखंड के मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। नतीजे 23 नवंबर को आएंगे। झारखंड ने बीते पांच साल में दो व्यक्तियों को तीन बार मुख्यमंत्री बनते देखा है। साल 2000 में झारखंड के गठन के बाद यहां भाजपा या झामुमो के नेतृत्व में ज्यादातर सरकारें बनी हैं। 24 साल में 13 अलग-अलग सरकारें बन चुकी हैं। इन सरकारों का नेतृत्व सात अलग-अलग व्यक्तियों ने किया। इन्हीं सात चेहरों के इर्द-गिर्द झारखंड की सत्ता घूमती रही है । राज्य में अभी झामुमो के नेतृत्व वाले महागठबंधन की सरकार है, जिसके मुखिया हेमंत सोरेन हैं। 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की राजनीति में बहुत कुछ बदल चुका है। लंबे समय तक बिहार का हिस्सा रहा झारखंड 15 नवंबर 2000 को भारत का 28वां राज्य बना। साल 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान संसद ने बिहार पुनर्गठन अधिनियम के जरिए झारखंड का निर्माण किया था। उस वर्ष की शुरूआत में बिहार में हुए चुनाव के आधार पर झारखंड की पहली विधानसभा के गठन का आधार बना। इन चुनावों के आधार पर भाजपा ने सहयोगियों के साथ मिलकर राज्य में पहली सरकार बनाई। 15 नवंबर 2000 को बाबूलाल मरांडी ने राज्य के पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। मुख्यमंत्री बनने से पहले मरांडी दूसरी और तीसरी वाजपेयी सरकार में पर्यावरण और वन राज्य मंत्री रह चुके थे। उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दिया और मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए विधानसभा उपचुनाव जीता। मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल ढाई साल तक चला। मरांडी की जगह उनके मंत्रिमंडल में भाजपा के एक मंत्री अर्जुन मुंडा आए जो झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बने। मुंडा 2005 में पहली विधानसभा के कार्यकाल के अंत तक मुख्यमंत्री बने रहे। अर्जुन मुंडा तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा के लिए 2005 में राज्य में पहली बार चुनाव हुए। जब नतीजे सामने आए तो सत्ताधारी भाजपा और उसका गठबंधन 41 सीटों के जादुई आंकड़ों से पिछड़ गया। भारतीय जनता पार्टी को 23. 57% मत के साथ सबसे ज्यादा 30 सीटें आईं। इसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा को 17 सीटें और 14.29% मत हासिल किए। नौ सीटें जीतकर कांग्रेस तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और उसे 12.05% वोट मिले। अन्य दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल के सात, जदयू के छह और आजसू के दो उम्मीदवार जीते। इसके अलावा निर्दलीय और अन्य दलों के कुल 10 उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे। इस तरह से झारखंड की जनता ने किसी एक राजनीतिक दल को सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया। झामुमो के नेता शिबू सोरेन ने सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन आवश्यक संख्या नहीं जुटा सके। इसलिए सीएम के रूप में शपथ लेने के 10 दिन के भीतर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद अर्जुन मुंडा ने भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया और मार्च 2005 में दूसरी बार सीएम बने। हालांकि अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली सरकार केवल डेढ़ साल तक ही चल पाई। गठबंधन के टूटने के कारण सितंबर 2006 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद जेएमएम के समर्थन वाली एक और गठबंधन सरकार ने राज्य की सत्ता संभाली। झारखंड में पहली बार सरकार का नेतृत्व एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा ने किया। कोड़ा जब सीएम बने तब उनकी उम्र करीब 35 साल थी। कोड़ा सरकार को झामुमो और अन्य दलों का समर्थन हासिल था। करीब दो साल बाद झामुमो ने समर्थन वापस ले लिया और मधु कोड़ा की सरकार गिर गई। इसके बाद झामुमो के नेता शिबू सोरेन अगस्त 2008 में दूसरी बार सीएम बने। सोरेन जब सीएम बने तब वे लोकसभा सांसद थे। सीएम बने रहने के लिए शिबू सोरेन को उपचुनाव लड़ना पड़ा। जनवरी 2009 में सोरेन उपचुनाव हार गए जिसके चलते उन्हें सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा और राजनीतिक अनिश्चितता के कारण राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। दिसंबर 2009 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन जारी रहा। झारखंड में दूसरी बार चुनाव हुए। दूसरे चुनाव के बाद भी कई बार सरकारें बनीं और गिरीं।
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2009 में राज्य में दूसरी बार विधानसभा चुनाव हुए,जब नतीजे सामने आए तो कोई भी दल 41 सीटों के जादुई आंकड़े को नहीं छू पाया। भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा 20.18% मत के साथ 18 सीटें आईं। झारखंड मुक्ति मोर्चा को भी 18 सीटें मिलीं लेकिन इसने 15.20% मत हासिल किए। 14 सीटें जीतकर कांग्रेस तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और उसे 16। 16% वोट मिले। बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के 11 विधायक चुनकर आए और इसे 8.99% मत मिले। राजद और आजसू के पांच-पांच और जदयू के दो उम्मीदवार जीते। इसके अलावा निर्दलीय और अन्य दलों के कुल आठ प्रत्याशी चुनाव जीते। खंडित जनादेश के कुछ महीनों बाद झामुमो। भाजपा ने अन्य दलों के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार बनाई, जिसका नेतृत्व शिबू सोरेन ने किया। सोरेन का तीसरा कार्यकाल करीब पांच महीने (दिसंबर 2009-मई 2010) तक चला और भाजपा ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। कुछ समय तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद सितंबर 2010 में भाजपा के अर्जुन मुंडा तीसरी बार सीएम बने। लेकिन अर्जुन मुंडा सरकार का तीसरा कार्यकाल जनवरी 2013 में ही समाप्त हो गया। राष्ट्रपति शासन हटने के बाद शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन सीएम बने। झामुमो-कांग्रेस गठबंधन के नेतृत्व वाली सरकार डेढ़ साल तक चली। 2014 के नवंबर में राज्य में तीसरी बार विधानसभा चुनाव हुए। 81 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने सबसे अधिक 37 सीटें जीतीं जिसने 31.26% वोट हासिल किए। इसके बाद झामुमो को 17 सीटें मिलीं इसके खाते में 20.43% मत गए। आठ विधायकों के साथ झाविमो (प्रजातांत्रिक) तीसरे स्थान पर रही जिसके पास 9.99% वोट गए। कांग्रेस के 10। 46% वोट के साथ छह विधायक तो आजसू के 3.68% वोट के साथ पांच विधायक जीते। इसके अलावा छह अन्य विधायक भी चुनकर विधानसभा पहुंचे। भाजपा के वरिष्ठ नेता रघुबर दास ने दिसंबर 2014 में बतौर सीएम शपथ ली। उनकी सरकार ने राज्य के इतिहास में पहली बार पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
झारखंड में पिछले विधानसभा चुनाव 30 नवंबर से 20 दिसंबर 2019 के बीच पांच चरणों में हुए थे। इसमें कुल 65.18 फीसदी मतदान दर्ज किया गया था। नतीजे 23 दिसंबर 2019 को घोषित किए गए। जब नतीजे सामने आए तो सत्ताधारी भाजपा को झटका लगा और वह 41 सीटों के जादुई आंकड़ों से पिछड़ गई। हेमंत सोरेन की पार्टी झामुमो को सबसे ज्यादा 30 सीटें आईं और इसे 18.72% वोट मिले। इसके बाद भाजपा को 25 सीटें मिलीं जिसने 33.37% मत हासिल किए। अन्य दलों की बात करें तो कांग्रेस के 16 विधायक (13.88% वोट), झाविमो के तीन (5. 45% वोट) और आजसू के दो विधायक (8.1% वोट) जीते। इसके अलावा दो निर्दलीय विधायक जबकि राजद, भाकपा (माले) और एनसीपी के एक-एक विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे। हार के बाद भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री रहे रघुबर दास ने इस्तीफा दे दिया। झामुमो के नेतृत्व में राज्य में महागठबंधन की सरकार बनी। इस सरकार में झामुमो को कांग्रेस, राजद, सीपीआई (एमएल)-एनसीपी का साथ मिला। इसके अलावा झाविमो प्रमुख व झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी हेमंत सोरेन सरकार को अपनी पार्टी का समर्थन दे दिया। इसके बाद 29 दिसंबर को झामुमो विधायक दल के नेता हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
फरवरी 2020 में झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ‘घर वापसी‘ करते हुए भाजपा में शामिल हो गए। इसके अलावा उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) का भाजपा में विलय भी कर दिया। वहीं हेमंत सोरेन का दूसरा कार्यकाल काफी चुनौतियों वाला रहा। 2022 में चुनाव आयोग ने झारखंड के तब के राज्यपाल रमेश बैस को एक याचिका पर अपनी राय भेजी थी जिसमें मांग की गई कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को खुद को एक खनन पट्टा देकर चुनावी कानून का उल्लंघन करने के लिए विधायक के रूप में अयोग्य ठहराया जाए। हालांकि इस याचिका पर बाद में कोई कार्रवाई नहीं हुई। हेमंत की मुश्किलें यहीं कम नहीं हुईं। 31 जनवरी 2024 को भूमि घोटाले के आरोपों के बाद प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी से ऐन पहले उन्होंने पद से त्यागपत्र दिया और राज्य की कमान शिबू सोरेन के करीबी माने जाने वाले चंपई सोरेन को मिली। 2 फरवरी 2024 को उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। पांच महीने तक रांची की जेल में बंद हेमंत को 28 जून को बड़ी राहत मिल गई। झारखंड उच्च न्यायालय ने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जमानत दे दी। इसके बाद झारखंड में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और अदालत से राहत मिलने के बाद हेमंत ने चंपई की जगह ली। 4 जुलाई को हेमंत तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, हेमंत सोरेन के झारखंड की सत्ता संभालने के बाद ही पूर्व मुख्यमंत्री चंपई के पाला बदलने की पटकथा शुरू हो गई। अगस्त मध्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता चंपई सोरेन ने भाजपा नेताओं से मुलाकात की। 26 अगस्त को चंपई नई दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से फिर मुलाकात की। पूर्व सीएम चंपई सोरेन 30 अगस्त को रांची में आधिकारिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए।
झारखंड विधानसभा की सभी 81 सीटों पर इस बार कुल 1,211 प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें पहले चरण की 43 सीटों पर कुल 683 प्रत्याशी तथा दूसरे चरण की 38 सीटों पर कुल 528 प्रत्याशी सम्मिलित हैं। इस तरह, इस बार के चुनाव मैदान में पिछले चुनाव की अपेक्षा चार प्रत्याशी कम हैं। पिछली बार सभी 81 सीटों पर कुल 1,216 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। दूसरे चरण की 38 सीटों पर 32 प्रत्याशियों ने अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया। इसके बाद इन सीटों पर कुल 528 प्रत्याशी चुनाव मैदान में रह गए हैं। यह संख्या वर्ष 2019 के पिछले विधानसभा चुनाव से 55 कम है। पिछले चुनाव में 583 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। इस बार तो बड़े दिग्गज नेताओं की इज्जत दांव पर लगी है जिनमें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबू लाल मरांडी,हेमंत सोरेन,सर्यू राय,चमपई सोरेन जैसे नेता शामिल हैं। प्रदेश के 24 जिलों में गिरिडीह एक मात्र ऐसा जिला है जिसके तहत आनेवाली विधानसभा सीटों में झामुमो ने सबसे अधिक प्रत्याशी दिए हैं। जिले में 6 सीटें धनवार, जमुआ, गिरिडीह, गांडेय, डुमरी और बगोदर आती हैं। शुरूआत की 5 सीटों पर झामुमो ने प्रत्याशी उतारा है। बगोदर सीट भाकपा- माले के हिस्से में गई है। वहीं एनडीए की ओर से डुमरी में आजसू और अन्य पांचों सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी मैदान में हैं। इन सभी छह सीटें इंडिया और एनडीए के लिए प्रतिष्ठा बन गई हैं। साल 2000 (एकीकृत बिहार के समय) में हुए चुनाव में जमुआ और धनवार सीट क्रमश: राजद और भाजपा ने जीती थी। नवंबर 2000 में झारखंड बनने के बाद प्रदेश में चार चुनाव हुए। इन चुनावों में दोनों सीटें झामुमो के हिस्से कभी नहीं आईं। इतिहास बदलने के लिए झामुमो ने इस बार जमुआ सीट से भाजपा के सीटिंग विधायक केदार हाजरा को सिंबल देकर उतारा है। धनवार सीट से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी मैदान में है। उनके लिखाफ झामुमो ने पूर्व विधायक निजामुद्दीन अंसारी को उतारा है। धनवार सीट पर मुस्लिम वोटर 26 प्रतिशत हैं। हालांकि यहां से इंडिया गठबंधन के एक प्रमुख दल भाकपा- माले भी चुनावी मैदान में है।
इसी तरह अगर देखे तो झारखंड की अधिकतर सीट पर इंडिया और एनडीए में सीधा मुकाबला है लेकिन कई ऐसी सीट है जहां मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है। वजह कहें तो खुद एनडीए और इंडिया के बागी है,तो कई सीट पर दूसरे दल के उम्मीदवार है। ऐसे में अब बाजी कौन मारेगा यह देखना दिलचस्प होगा। कई सीटों पर बागियों या पार्टी बदल कर खड़े हुए उम्मीदवारों की वजह से एनडीए और इंडिया गठबंधन के उममीदवारों की धड़कन बढ़ी हुई है। सबसे पहले रांची से सटे सिल्ली विधानसभा की बात करते है। इस सीट पर आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो एनडीए गठबंधन से मैदान में है। पिछले चार चुनावों में वह जीत दर्ज चुके है। लेकिन बीच में 2014 और 2018 में यह सीट झारखंड मुक्ति मोर्चा के खाते में गयी थी। इस सीट पर सुदेश महतो का दबदबा रहा है। लेकिन इस चुनाव में यहां मुकाबला त्रिकोणीय होता दिख रहा है। एनडीए से सुदेश महतो और इंडिया गठबंधन से अमित महतो मैदान में है। इन दोनों के बीच अब जेएलकेएम से देवेंद्र महतो भी अखाड़े में कूद पड़े है। ऐसे में किसका खेल बिगड़ेगा और किसका बनेगा यह देखना दिलचस्प होने वाला है। डुमरी की जंग में पहली बार विधानसभा का चुनाव जयराम महतो लड़ रहे है। अब तक इस सीट पर लड़ाई झामुमो और आजसू में होती थी लेकिन अब जयराम के इंट्री से मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। अगर देखे तो युवाओं में जयराम महतो की पकड़ अच्छी है। लोकसभा के चुनाव में भी इस सीट से जयराम को अच्छी बढ़त मिली थी। लेकिन अब विधानसभा के चुनाव में जैसे जेएलकेएम से जयराम ने पर्चा दाखिल किया लड़ाई अलग मोड़ पर खड़ी हो गई। आखिर कौन जीत का परचम लहराएगा यह आकलन करना बेहद कठिन है। बेरमों विधानसभा सीट पर झारखंड गठन के बाद कोई भी उम्मीदवार दोबारा रिपिट नहीं हुआ है। एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा के खाते में सीट गई है। हालांकि 2019 के चुनाव में राजेश सिंह चुनाव जीते और बाद में जब उपचुनाव हुआ तो राजेन्द्र सिंह के बेटे कुमार जयमंगल सिंह को जनता ने जीत का माला पहनाया। लेकिन इस बार लड़ाई में इस सीट पर भी जयराम महतो है। वही कांग्रेस से कुमार जयमंगल सिंह और भाजपा से रवींद्र पांडे उम्मीदवार है। अब तक इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस में सीधा मुकाबला रहा है लेकिन अब जयराम महतो की इंट्री से माहौल बदल गया। गोमिया सीट फिलहाल तो आजसू के खाते में है। 2019 के चुनाव में लंबोदर महतो चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे। इस बार फिर चुनावी दंगल में लंबोदर महतो आजसू से उम्मीदवार है। वहीं झामुमो से योगेंद्र महतो प्रत्याशी है। लेकिन इस सीट पर जयराम की पार्टी ने पूजा महतो को उतार दिया है। पूजा महतो जयराम की सबसे करीबी सिपाही में से एक है। साथ ही इनके भाषण देने का अंदाज भी अनोखा है। हमेशा जनहित के मुद्दे को लेकर आवाज बुलंद करती रही हैं। यही वजह है कि गोमिया सीट पर भी मुकाबला दिलचस्प होगा।
अब बात गढ़वा विधानसभा की इस सीट पर भी बागी उम्मीदवार ने माहौल को दिलचस्प बना दिया है। झामुमो से मिथलेश ठाकुर इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार है। लेकिन गठबंधन से बागी हो कर सपा से गिरीनाथ सिंह ने पर्चा दाखिल कर दिया है। गिरीनाथ सिंह का भी इस सीट पर अपना वोट बैंक है। यही वजह है कि मिथलेश ठाकुर और सतेन्द्र तिवारी के बाद अब लड़ाई में गिरीनाथ सिंह आगए है। इससे इस सीट पर भी मुकाबला सीधा ना हो कर त्रिकोणीय हो गया है।बरही सीट पर भी कांग्रेस के बागी उमाशंकर अकेला ने लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है। इस सीट पर कांग्रेस से अरुण साहू और मनोज यादव भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे है। कांग्रेस ने उमशंकर अकेला का टिकट काट दिया जिसके बाद अकेला यादव ने समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ने का मन बना लिया। ऐसे में लड़ाई में तीनों दल है। भाजपा और इंडिया गठबंधन दोनों का वोट इस क्षेत्र में है। लेकिन अकेला यादव की पकड़ काफी मजबूत है। जिससे मुकाबले में वह बने हुए है। चाहे दल कोई भी हो अकेला यादव लड़ाई में टक्कर दे रहे हैं। सिमडेगा सीट पर कांग्रेस-भाजपा और झारखंड पार्टी तीनों लड़ाई में बनी हुई है। सिमडेगा से कांग्रेस ने सीटींग विधायक भूषण बाड़ा को फिर मैदान में उतारा है तो भाजपा ने श्रद्धानंद बेसरा को टिकट दिया है। दोनों नेताओं की पकड़ मजबूत है लेकिन झारखंड पार्टी की इंट्री के साथ ही माहौल त्रिकोणीय बनता दिख रहा है। अब देखना होगा की आखिर इस सीट पर किसकी ताजपोशी होगी।
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रांची के वरिष्ठ पत्रकार संजय समर उदय सर्वोदय से कहते हैं कि संताल परगना में भले ही 18 विधानसभा सीटें हैं और इसी प्रमंडल की बरहेट सीट से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चुनाव लड़ रहे हों, लेकिन दुमका सीट संताल परगना की हॉट सीट में शुमार रहती है। यहां से चुनाव में हार-जीत के परिणाम ने कई बार प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को बदलने का काम किया है। जब-जब इस सीट पर राजनीतिक बदलाव दिखा है, तब-तब सत्ता में पहुंच कर यहां के विधायक अहम दायित्व निभाते रहे हैं। 1977 में जब जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में पहली बार महादेव मरांडी जीते थे, तब उन्हें तत्कालीन कपूर्री ठाकुर के मुख्यमंत्रित्वकाल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री का दायित्व मिला था। उसके बाद से 1980 से 2000 तक प्रो स्टीफन मरांडी झामुमो प्रत्याशी के रूप में विधायक चुने जाते रहे। 2005 में झामुमो ने उनका टिकट काट दिया, तो प्रो स्टीफन मरांडी निर्दलीय चुनाव लड़े। उनके सामने झामुमो के प्रत्याशी के तौर पर हेमंत सोरेन थे। यह चुनाव हेमंत सोरेन हार गये थे और झामुमो की यहां पहली बार हार हुई। अब दीवाली का त्यौहार खत्म होते ही झारखंड के चुनावी दंगल में अपने अपने प्रत्याशियों की नैया पार लगाने के लिए एनडीए और इंडिया गठबंधन के साथ कई छोटी पार्टियों के नेता मतदाताओं के घरों की दौड़ लगा रहे हैं। झारखंड के विधानसभा चुनाव में हर दल ने दलबदलुओं पर खुलकर दांव लगाया है। बीजेपी ने सबसे अधिक आठ दलबदलुओं को टिकट दिया है। जेएमएम ने सात और सपा ने ऐसे छह नेताओं को टिकट दिया है जो दूसरी पार्टियों से आए हैं। अब देखना होगा कि इन दल बदलुओं के सहारे अपनी नैया पार लगाने निकले पार्टी की नैया डूबती है या पार लगती है।