लखनऊ से ¦ अरविंद जयतिलकआंतरिक कलह और कार्यकर्ताओं के क्षीण होते मनोबल के बीच सरकार की उपलब्धियों को अब जनता के सामने लाना आसान नहीं है। ऐसे चुनौतियों के बीच साफ-सुथरी छवि होने के बावजूद अखिलेश यादव क्या सपा को दुबारा सत्ता में लाने में कामयाब होंगे? फर्ज कीजिए कि समाजवादी पुरोधा डॉ. राममनोहर लोहिया आज जीवित होते तो उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार में मचे घमासान पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? ऐसी स्थिति में वह सपा सरकार से इतना तो अवश्य पूछते कि यह किस तरह की ‘समाजवादी सरकार’ है जिसके रहनुमा जनता के हितों की चिंता छोड़ सत्ता पर निर्णायक कब्जेदारी और एक-दूसरे को निपटाने में अपन ऊर्जा जाया कर रहे हैं? उनका यह भी सवाल होता कि यह किस तरह की सरकार है जो एक मंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में पहले बर्खास्त करती है और फिर उसके सिर पर तख्तो-ताज रख देती है? उनका यह भी सवाल होता कि सपा के नुमाइंदों का आचरण दिल्ली सल्तनत के खिलजी सुल्तानों अलाउद्दीन और जलालुद्दीन की तरह क्यों है? कहीं वे परिवार को ही सरकार और सरकार को ही परिवार तो नहीं समझ बैठे हैं?सवाल लाजिमी है कि क्या उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार में मची रार भी मुलायम सिंह यादव परिवार के सदस्यों के बीच निहित स्वार्थों की टकराव का परिणाम हंै? इससे इंकार नहीं किया जा सकता। गौर करें तो इसकी बुनियाद तभी पड़ गयी थी जब शिवपाल यादव एवं कई वरिष्ठ सपा नेताओं ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने का विरोध किया था। स्वयं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने स्वीकारा भी है कि वर्ष 2012 में बहुमत मिलने के बाद अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा गया तब शिवपाल ने मुखर होकर कहा था कि 2014 के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए वरना लोकसभा चुनाव में कामयाबी नहीं मिलेगी। मुलायम सिंह का कहना है कि अगर वे शिवपाल की बात मान लिए होते तो आज वे देश के प्रधानमंत्री होते। बहरहाल, मुलायम सिंह यादव के इस आंकलन का आधार क्या है यह तो वही जानें, पर एक बात स्पष्ट है कि अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के साढ़े चार वर्ष बाद भी शिवपाल सिंह यादव समेत कई नेताओं को वे बतौर मुख्यमंत्री कबूल नहीं हैं। उसी का नतीजा है कि अखिलेश खुले हाथ काम करने में विफल हैं और देश भर में यह धारणा स्थापित हुई है कि राज्य में सत्ता के कई केंद्र हैं। विपक्ष को कहने का मौका मिला है कि उत्तर प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्री हैं। आज के संघर्ष को उसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। अभी यह कहना मुश्किल है कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के हस्तक्षेप से मुख्यमंत्री अखिलेश और उनके चाचा व मंत्री शिवपाल के बीच युद्ध थम गया है और भविष्य में दोनों एक-दूसरे को पीछे ढकेलने की कोशिश नहीं करेंगे। यह दबाई हुई आग है और कभी भी भड़क सकती है।मुलायम सिंह यादव ने झगड़े को सुलझाने के लिए जो फार्मूला तय किया है, वह सुलझाएगा कम उलझाएगा ज्यादा। फार्मूले के तहत शिवपाल यादव को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई है, वहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्य संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष होंगे। कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव का विधानसभा चुनाव में टिकट बांटने में अहम रोल होगा लेकिन क्या यह सहजता से संभव हो पाएगा? क्या ऐसे में टिकट बंटवारे को लेकर घमासान नहीं मचेगा? माना जा रहा है कि शिवपाल यादव के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद अब उनकी कोशिश संगठनों पर काबिज मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कट्टर समर्थकों की छुट्टी करने की होगी। अगर ऐसा हुआ तो पुन: कलह का बवंडर खड़ा होना तय है। इस घमासान का नौकरशाही पर भी असर दिखेगा और फिर नौकरशाहों के बीच खेमाबंदी भी तेज होगी। पिछले दिनों अखिलेश ने मुख्य सचिव दीपक सिंघल की छुट्टी इसलिए कर दी कि वे शिवपाल यादव के करीबी माने जाते थे। आने वाले दिनों में अन्य नौकरशाहों के भी पर कतरे जा सकते हैं। इस संघर्ष में जीत चाहे जिसकी भी हुई हो लेकिन नुकसान पूर्णतया समाजवादी पार्टी का ही हुआ है।ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि फिर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव किस दम पर समाजवादी पार्टी को दुबारा सत्ता में लाने में कामयाब होंगे? आंतरिक कलह और कार्यकर्ताओं के क्षीण होते मनोबल, चौपट कानून व्यवस्था, भितरघात और मंत्रियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, क्या उनकी सरकार की उपलब्धियों को डकार नहीं जाएंगे? यह काफी कुछ अब इस बात पर निर्भर करेगा कि मुख्यमंत्री अखिलेश अपने शेष कार्यकाल में विपक्षी दलों के वार का प्रतिकार किस चतुराई से करते हैं। इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अखिलेश सरकार ने जनहित में ढेर सारे लोकप्रिय निर्णय लिए हैं। उसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हो भी रही है। समाजवादी पार्टी के लिए अच्छी बात यह है कि चाचा-भतीजे के संघर्ष में व्यक्तिगत तौर पर मुख्यमंत्री अखिलेश की छवि एक ईमानदार और साफ-सुथरे मुख्यमंत्री के तौर पर उभरी है और जनता में संदेश गया है कि वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। लेकिन एक बात जो अखिलेश सरकार के पक्ष में नहीं है, वह यह कि उनकी सरकार आरोपियों और भ्रष्टाचारियों का बचाव कर रही है। दूसरी ओर राज्य में बिगड़ती कानून-व्यवस्था, दंगा-फसाद, हत्या, लूट, बलात्कार और अपहरण की घटनाओं में वृद्धि भी आम जनता को आक्रोशित कर रही है। इन सबके अलावा राजभवन से बढ़ती संवैधानिक तकरार भी समाजवादी सरकार की साख को नुकसान पहुंचा रहा है।पिछले दिनों राज्यपाल राम नाईक ने विधान परिषद में क्षेत्र विशेष के लोगों की मनोनयन संबंधी फाइल राज्य सरकार को लौटा कर और उच्चतम न्यायालय ने लोकायुक्त मामले में सरकार की नाकाबिलियत को उजागर कर एक किस्म से सिद्ध कर दिया है कि समाजवादी सरकार संवैधानिक जवाबदेही, पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के प्रति एकदम उदासीन है। सरकार पर विभिन्न आयोगों में दागदार और जाति विशेष के लोगों की नियुक्ति करने का भी आरोप है। इस मामले में बार-बार न्यायालय को दखल देना पड़ रहा है और सरकार की किरकिरी हो रही है।सवाल लाजिमी है, फिर निहित स्वार्थ टकराव की विग्रह बनी समाजवादी सरकार 2017 का मिशन फतह कैसे करेगी?
सपा में अंतर्कलह निहित स्वार्थ की वजह
Uday Sarvodaya | 1 Oct 2016 2:53 PM GMT
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Updated : 1 Oct 2016 2:53 PM GMT
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