अजीत सिंह
कभी जमाना था, जब बड़े घर से लेकर छोटे घरों तक के बच्चे पटरी लेकर स्कूल जाते. दुधिया, चाक से लिखते. कभी-कभी झगड़ा होता तो वही पटरी ही काम आती थी. उसे चमका कर रखा जाता था. चमकाने के लिए विभिन्न तरीके अपनाये जाते थे. कालिख लगाकर, उस पर सीसी से घिसना भी चमकाने के कई तरीकों में से एक था. पटरी को विद्या माई मानकर हर रोज प्रणाम भी हम सभी करते थे. धीरे-धीरे वह गायब हो गया. फिर स्लेट ने उसकी जगह ली. इसके बाद अब तो कापी से ही शुरूआत होती है. यही नहीं स्कूल ही मां-बाप का स्टेंडर्ड का पैमाना बताते हैं. कितनी फीस है, इसी हिसाब से वहां का स्टैंडर्ड तय होता है.
बच्चे भगवान के रूप में माने जाते हैं. यदि भगवान में ही ऊंच-नीच का भाव पैदा हो जाय. धनी-गरीब की खाई पट जाय, तो ऐसे में प्रतिभाएं कैसे निकल पाएंगी. ऐसे में राष्ट्र की प्रगति की कल्पना कैसे की जा सकती है. जब घर की नींव ही कांपने लगे, कमजोर हो तो ऐसी स्थिति में उस घर के मजबूत होने की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं. समरसता, सर्वांगिण विकास के लिए हमें उस पटरी वाले जमाने में ही जाना पड़ेगा, जहां मालिक और मालिक के हलवाहे का बच्चा एक साथ टाट पर बैठते थे. कोई प्राइवेट स्कूल नहीं था. मास्टर साहब घर भी जाते थे और अपने शिष्य का हालचाल पिता से लेते रहते थे. पिटाई भी जमकर होती थी. हालांकि मैं पूर्णतया उसको अपनाने का समर्थन नहीं करता, लेकिन उसकी अच्छाइयों को तो हम स्वीकार कर सकते हैं. वह अच्छाई है, डीएम और मजदूर के बच्चों को एक साथ बैठाकर पढ़ाई कराई जाय.
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यदि व्यवस्था संचालक और मजदूर के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं तो सरकारी स्कूलों के शिक्षा का स्तर स्वयं ही सुधर जाएंगे. इसको दूसरी दृष्टि से देखें, आज सरकार दावा करती है कि प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधर गया है. माना जा सकता है कि कुछ जगहों पर सुधर गया हो, लेकिन सुधरना तो तब कहेंगे, जब मास्टर साहब जहां पढ़ाते हैं, वहीं अपने बच्चे का भी एडमिशन कराएं. इसको माना जा सकता है कि उन्हें वहां की पढ़ाई पर विश्वास जगा है. यदि उनका बच्चा प्राइवेट में पढ़ता है तो उसका अर्थ ही हुआ कि उन्हें अपने पढ़ाने पर विश्वास नहीं है. वे प्राइवेट स्कूल पर ही विश्वास करते हैं, जबकि प्राइवेट स्कूल में उनसे कम योग्यता वाले शिक्षक हैं.
यह खामी कहीं एक जगह से नहीं है. इसको किसी एक व्यक्ति, एक पद से जोड़ा भी नहीं जा सकता है. यह पूरा सिस्टम ही खोखला हो चुका है. इसे सुधारने में वक्त लगेगा, लेकिन इसको सुधारने का पहला तरीका यही है कि हर शिक्षक को अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना होगा. डीएम से लेकर जज तक के लिए एक माडल के स्कूल की व्यवस्था होनी चाहिए, जो फ्री हो, जहां गरीबों के बच्चे भी एक साथ पढ़ सकें. ऐसी स्थिति में कोयले से हीरा निकालने में हम कामयाब होंगे. आज की स्थिति तो यह है कि कोयले से हीरा निकालने का खर्च ही गरीब परिवार वहन नहीं कर सकता और वह हीरा रूपी प्रतिभा ऊंचे खर्च के नीचे दबकर रह जाता है.
वहीं दूसरी तरफ आज कल ऊंचे घरों में पैदा होने वाले बच्चे ऊंची व्यवस्था के बल पर ऊंची उड़ान भर ले जाते हैं. ऐसी स्थिति में झोपड़ी में रहने वाले बच्चों में हीन भावना का पैदा होना लाजिमी है. उनको ऐसा लगता है कि यदि वे पढ़ाई भी कर लें तो उनके आगे की अच्छी पढ़ाई के लिए परिवार के पास पैसा ही नहीं है. इस हीन भावना को खत्म करने की जरूरत है. इसके लिए सरकारें तमाम वादे तो करती हैं, लेकिन इस पर काम कोई नहीं करता.
अभी नए सत्र की शुरूआत हो रही है. प्राइवेट स्कूलों की स्थिति यह है कि 40 वाली कापी 80 रुपये में दी जाती है और 400 रुपये वाले जूते आठ सौ में मिल रहे हैं. बकायदे स्कूल प्रशासन फरमान जारी करता है कि आप कापी और किताब फलाने जगह से ही लेंगे. जूते-मोजे आप उस दुकान से लेंगे. उसके अलावा आप दूसरी जगह से नहीं ले सकते. किसी भी प्राइवेट स्कूल को फीस 500 रुपये महीने है तो निश्चय ही उसका पांच सौ से अधिक हर महीने दूसरे मदों में किसी न किसी बहाने अभिभावक के ऊपर बोझ बढ़ा दिया जाता है.
इस व्यस्था में सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग पीस रहा है. वह अपने बच्चे को ऊंच्च वर्ग की श्रेणी में पढ़ाने की कोशिश करता है, लेकिन वह उसकी व्यवस्थाओं को सुचारू बनाने में खुद ही तबाह हो जाता है. इसके लिए समय-समय पर लोग मांग भी उठाते हैं. विभिन्न समयों पर सरकारों ने इस पर अंकुश लगाने के लिए कई तरह के कानून भी बनाये लेकिन प्राइवेट स्कूल इन कानूनों को हमेशा धता बताते रहते हैं और अभिभावक उसमें पीसने को मजबूर हो जाता है.
सबसे जरूरी है कि सरकार समान शिक्षा की व्यवस्था करे. एक ऐसी शिक्षा की व्यवस्था हो, जिसमें डीएम और मजदूर के बच्चे एक साथ पढ़ सकें, उनमें एक समान भावना जागृत हो सके. इसके बाद जो परिवर्तन होगा, वह काबिले तारिफ होगा. हर पीढ़ी में नया बदलाव दिखेगा. सर्व समाज का विकास होगा. सबको एक समान बढ़ने का मौका मिलेगा. अभी तो चावल और गेहूं देकर सरकार यह एहसास करा रही है कि तुम गरीब हो और तुम्हारे ऊपर हम दया दिखा रहे हैं. आज कोई भी यह नहीं चाहता कि सभी में एक मूलभूत परिवर्तन हो. सभी में यदि विकास चाहते हैं तो हकीकत में सरकार को सभी को एक समान शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी.
लेखक चाइल्ड राइट्स एक्टिविस्ट हैं