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    यह तो अपनी होली नहीं
    समाज

    यह तो अपनी होली नहीं

    Uday SarvodayaBy Uday SarvodayaMarch 14, 2025No Comments7 Mins Read
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    मनोहर नायक
    अपनी होली हो चुकी। इस होली से अपना कोई वास्ता नहीं। हमारे उस समय पुलिस अपना काम करती थी पर दिखती नहीं थी। डराती घूमती नहीं थी। उसकी आड़ में षड़यंत्रकारी मंसूबे वाले जघन्य संदेश नहीं देते थे। कहीं पढ़ा था कि पंचवटी में सीता राम से कहती हैं कि तुम बाहर धनुष बाण लेकर न निकला करो इससे लोगों में भय का संचार होता है। आज तो मंशा ही भय पैदा करने की है , औकात बताने की है। तब मसजिदें,चर्च और दूसरे पूजास्थल महफ़ूज़ थे। यह कैसी होली है कि हिन्दू ब्रिगेड के डर से मसजिदों पर तिरपाल चढ़ा दी गयी। रमजान है,शुक्रवार भी था पर मंदिरों पर संकट नहीं । उत्तर प्रदेश,बिहार में सुरक्षा बलों के फ़्लैग मार्च की ख़बर थी। मैं जबलपुर में हूँ और यहाँ फ़्लैग मार्च देखी। देश भर में यह कई जगह हुई। होली पर हमारी राष्ट्रीय एकता के प्रतीक था केंद्रीय सुरक्षा बल। प्रेमोत्सव के पर्व पर बड़ी आबादी को ख़ौफ़ में दुबका कर अलग- थलग कर देना होली के विचार को ही मार देना है । और यह सब एक महायोजना का हिस्सा है। ये ख़याल होली से विलग करते रहे। ‘होली की मंगलमय हो’, ‘होली की अग्नि में आपके दुख, संताप भस्म हों’, ‘ होली के रंग जीवन के रंग बनकर खिलें’, अबाध चली आ रही ऐसी शुभकामनाओं पर हैरत करता हुआ उनके सशंकित हश्र पर सिर धुनता रहा।

    होली की प्यार दे प्यार दे प्यार दे दे … की भावना पर ग़ौर करते हुए लगता था कि शुक्र है कि हमारे पास यह एक ऐसा त्योहार तो है जो भेदभाव नहीं मानता। कटुता, मनोमालिन्य, घृणा का निषेध करता हुआ सबको अपने रंगों में रंग देना चाहता है। स्वभाव में यह सर्वाधिक लोकतांत्रिक है जो अपना-पराया नहीं मानता। यह हर तरह के सामाजिक प्रोटोकॉल को नकारता है। इसकी उमंग-तरंग में सब मिलने- मिलाने, रंगने- रंगाने की उत्सुकता और कौतुक से भरे होते हैं । बेशक, समय के साथ इसमें भदेसपन और विद्रूपताएँ जुड़ती गयीं । फिर भी होली एक गनीमत थी । शुद्धरूपेण लोकभावना ने इसकी उदारता और उल्लास को काफ़ी कुछ बचाये रखते हुए इसे मनमौज़ और मजमे का उत्सव बनाये रखा। । लेकिन अब संगीन संकटकाल है । औपचारिकता में सिमटती जा रही होली की बेसाख़्तगी , बिंदासपन और बेबाक़ियों को ख़ात्मे तक पहुँचा दिया गया है। सिर्फ़ बाज़ार है और उसका त्योहारी जयकारा है । पर्व की मूल प्रेरणा को निस्पंद करती साम्प्रदायिकता है। एक ज़माने को एक ज़माने तक सराबोर किये था जो वह राग-रंग और प्रेरणाएँ दम तोड़ रही हैं … दिले आशिक और ज़माना दोनों बेज़ार हैं।

    जीवन के प्रेरक रंग छीज रहे हैं । विविधता और रंगीनियत के हामी रहे इस देश के असली रंग धुँधले पड़ते जा रहे हैं … रंगारंग वैविध्य के प्रति देश उल्लास और उमंग खोता जा रहा है। बहुबखानी अनेकता में एकता हमें शून्य से नहीं , इसी समावेशी माहौल ने दी थी। यह सदियों के हेलमेल, समन्वय, सहिष्णुता और उदारता से अर्जित हुई । अब सब कुछ जैसे बिखर रहा है। समाज में दूरियाँ, अविश्वास और विभाजन व्याप्त है। एक सदी का भयावह इतिहास जैसे अपने को दोहराने को उद्धत है। विभाजन और विद्बेष की राजनीति के सौ साल पूरे होने को हैं और यह आज अतिशय कामयाब राजनीतिक रणनीति है। इससे देश की आबोहवा बोझिल है। इसकी बदौलत सुरम्य की जगह उजाड़ ही उजाड़ है। ख़ुशहाली ख़ुशनुमा रंगों के साथ ग़ायब है और उनकी जगह हर तरफ़ शिथिल व उदास रंग हैं … प्रसन्नता पर क्षुब्धता हावी होती जा रही है … भगवानजी भी अब रौद्ररूपेण वंदते हैं।

    इस समय माहौल अजब है। संघ-सत्ता- सरकार उनके नेता और भक्त सब विष प्रसारक विशारद हैं । समाज में घृणा बो दी गयी है, दुर्भावना फैला दी गयी है । प्रेम, सद्भाव की, जुड़ने जोड़ने और मिलने-मिलाने की बात कोई नहीं करता । मीडिया तो घोर साम्प्रदायिक और विषैला है। पहले के साप्ताहिकों के होली विशेषांक चकित करते हैं । वे होली के निमित्त समाज में सौहार्द, समन्वय, सामंजस्य होने की बात करते और उसका वातावरण बनाते। जीवन तब इस क़दर जड़ और भेड़ियाधसान नहीं था … मेलमिलाप की गुंजाइश बची हुई थी … उन्मुक्तता ,उत्सुकता ख़तरे से बाहर थीं ।ये होली विशेषांक इसी मेल मोहब्बत का बखान करते और उस ‘गुंजाइश ‘ को फैलाने की कोशिश करते । प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी यही करती थी। पचास के दशक के शुरू के होली विशेषांक में एक छोटी टीप यह थी : ” क्यों घर में मनहूस बने बैठे हो भाई ! समाज की भुजाएँ तुम्हें स्नेह से भेंटने के लिए आकुल-व्याकुल हो रही हैं । अपने ही बीच वर्ग विभेद की खाइयाँ खोद कर जो घिर गए हो सो इन सीमाओं को तोड़ो । अपना भाल लाल किये , अपनी लाल टोपी लिए बड़े और छोटे का भेद मिटाकर आपस में मिलो और आज निश्चय करो कि आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में इसी अभेद की ओर, इसी समाज रचना के निर्माण की ओर तुम्हें क़दम बढ़ाना है।” इस विशेषांक में ऐसे लोगों की शिनाख़्त विस्तार से की गयी है जिनसे प्रजा दुखारी है … ‘होली के आज ख़ुशी के दिन’ शीर्षक से कहा गया कि इन लोगों के लिए होली में ये ख़ास तोहफ़े : “एक मुट्ठी काली गुलाल,दो पिटारी गधा रंग,तीन लोटे भर तक मलंगा मिला पानी और एक बीड़ा पान कुनैन और मिर्च भरा हुआ ।”

    होली की जबलपुरी पुरानी यादें पुरलुफ़्त और प्रेमभरी हैं ।ये गहन आत्मीय स्मृतियाँ अपनापे से भरे एक निर्दोष-से समय से वाबस्ता हैं, इसलिए बेगाने होते जाते इस माहौल में अजनबी लगती हैं | हमारा जबलपुर तो घनघोर उत्सव प्रिय , बल्कि उत्सव उन्मादी शहर है … दुर्गोत्सव-दशहरा और होली तो ख़ासतौर पर हंगामी । उत्सवों से जबलपुर वाले अघाते, उकताते, थकते नहीं… कभी-कभी तो लगता है शहर सब कुछ छोड़छाड़ ,भूलभाल कर धर्मोल्लास और उसके अनुसंधान में ही रमा रहता है । पर होली मनाने के तब के जबलपुरी अधीर मन की याद आज बरबस उसे इस देश के उस मन से जोड़ देती है जो होली को विविधता के उत्सव के रूप में रंगोल्लास के साथ मनाता रहा है ।… बचपन से जवान होने तक की जबलपुर की होली की याद में प्रेम और मस्ती की ही याद छायी रहती है। सुबह घर से बाहर निकलते तो देखते कि अरे एक दुनिया तो रंग- बिरंगे रंगों को उड़ाती- लुटाती कब की घरों से बाहर है ।

    होली की ये यादें पुलकित करती हैं । आज के कठिन और दारुण समय में वे स्मृतियाँ दूर होकर भी पास लगतीं हैं और कितनी ज़रूरी भी । होली सही अर्थों में लोकोत्सव है , शायद इन सबसे अलग वह एक भावना है, प्रेम भावना , अहं,पाखंड के विसर्जन की भावना… एक भावना जो शर्म, संकोच, भय,दीनता, कुंठा के विरुद्ध समानता, सहजता और बेधड़क जीवन की पैरोकार है । आज जब योजनापूर्वक धर्म, पर्व और जीवन मूल्यों को कट्टरता, मूढ़ता और कूपमंडूकता में पतित किया जा रहा है तब यह होली-भावना कितनी ज़रूरी है जो बिना रंग और गुझिया के भी जीवन में उजास और मिठास भर सकती है। आज विविधता और रंगीनियत को ख़ारिज़ करने वाले समाज में नफ़रत और अलगाव के कीच रंग उलीचे जा रहे हैं । संघ परिवारी सालों से पालित- पोषित समरसता और पारस्परिकता को कोस रहे हैं । ये एकरंगी, इकहरे एकांकी सोच और चलन के लोग हैं । ये नि:शंक हैं कि सरकार उनकी है और उसकी कमान उस हाथ में है जिसे खुलेआम नफ़रत फैलाने से कोई गुरेज़ नहीं।

    होली पर मन उचाट और अवसन्न है । लगता है अपनी होली हम मना चुके। त्योहार अब प्रसन्नता नहीं दहशत लाते हैं। होली के ज़रिये भी इस बर भविष्य में बेखटके आने वाले ख़तरों के बारे में जता दिया गया है। हमारा डर रामनवमी ,हनुमान जयंती की थरथर प्रतीक्षा कर रहा है। हम इतने बाँटे जा चुके हैं कि आपस में सुख- दुख ‘बाँटना’ निरर्थक हो गया है। विविधता और रंगीनियत को दुश्मन क़रार दे दिया गया है। गाढ़े रंग ओझल हो रहे हैं। उजले रगों की उजास लुप्त है। परिदृश्य पर फीके रंग छाते जा रहे हैं। होली और त्योहारों पर यह प्रेम और मिलनसारिता दुख देती याद आती रही। हम … अब तलक आशिक़ी का वह ज़माना याद है।

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