विवेक शुक्ला
सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित के बाद दिल्ली को एक बार फिर आतिशी के रूप में महिला मुख्यमंत्री मिल गई है। जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया था तब ही लग रहा था कि आतिशी दिल्ली की मुख्य मंत्री बन सकती हैं। अब जब तक दिल्ली विधान सभा के चुनाव नहीं हो जाते वो मुख्यमंत्री रहेंगी। हालांकि वो अरविंद केजरीवाल के निदेर्शों का ही पालन करेंगी मुख्यमंत्री रहते हुए। उन्हें भी पता है कि वो विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री सिर्फ अरविंद केजरीवाल की वजह से ही बनी हैं। अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी (आप) की धुरी हैं।
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अगर आप दिल्ली के इतिहास को खंगाले तो पता चलेगा कि दिल्ली की पहली महिला शासक रजिया सुल्तान थी। रजिया सुल्तान ने 1236-1240 के बीच दिल्ली पर राज किया था। रजिया सुल्तान दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश के प्रमुख शासक इल्तुतमिश की बेटी थीं। उसने अपनी मृत्यु से पहले ही उसे अपना उतराधिकारी बनाया दिया था। ––उसे अपने किसी भी पुत्र में दिल्ली पर राज करने की कुव्वत नजर नहीं आती थी। इल्तुतामिश की कब्र कुतुब मीनार परिसर में वीरान रहती है। वहां शायद ही कोई आता हो।
बहरहाल रजिया सुल्तान के राज के सात सौ साल से भी अधिक समय के बाद शीला दीक्षित 1998 में दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं। उन्होंने लगातार 15 सालों तक दिल्ली पर राज किया। इतने लंबे समय तक दिल्ली पर शायद ही किसी शासक ने लगातार राज किया हो। उनका कार्यकाल दिल्ली के चौतरफा विकास के लिए सदैव याद रखा जाएगा। उनके दौर में ही दिल्ली में मेट्रो रेल ने दस्तक दी थी और बिजली संकट खत्म हुआ था। अगर मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित का कार्यकाल सबसे लंबा रहा तो सुषमा स्वराज का कार्यकाल दो महीने भी नहीं रहा। वो 12 अक्तूबर 1998 से लेकर 3 दिसंबर 1998 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही। जाहिर है कि इतने छोटे से कार्यकाल में वो कोई अहम कदम जनता के हित में नहीं ले सकी थीं। भाजपा आला कमान को साहिब सिंह वर्मा की जगह किसी को मुख्यमंत्री बनाना था, तब सुषमा स्वराज के नाम पर सवार्नुमति बन गई थी।
इस बीच, डॉ। सुशीला नैयर को अज्ञात कारणों के चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से 1952 में पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रखा गया था। देश के पहले लोकसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली विधान सभा का भी चुनाव 1952 में हुआ था। उसमें कांग्रेस को अभूतपूर्व विजय मिली। सियासत और सार्वजनिक जीवन में कामकाज के लिहाज से डॉ। सुशीला नैयर के मुख्यमंत्री बनने की पूरी उम्मीद थी। पर दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बनाए गए नांगलोई के विधायक चौधरी ब्रहम प्रकाश। उन्होंने डॉ। सुशीला नैयर को अपना स्वास्थ्य मंत्री बनाया। तब बहुत लोगों को हैरानी हुई थी कि डॉ। सुशीला नैयर को क्यों मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। वो देव नगर से विधान सभा के लिए निर्वाचित हुईं थीं। डॉ। सुशीला नैयर गांधी जी की शिष्य होने के साथ-साथ उनकी निजी चिकित्सक भी थीं। वो गांधी जी के निजी सचिव प्यारे नैयर की छोटी बहन थीं। जब गांधी जी ने 12 से 18 जनवरी, 1948 को उपवास रखा तब डॉ। सुशीला नैयर उनके स्वास्थ्य पर नजर रख रही थीं। उन्होंने ही फरीदाबाद में ट्यूबरक्लोसिस सेनेटोरियम की स्थापना करवाई। उन्होंने देशभर में डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में जाने को प्रेरित किया। उनकी शख्सियत बहुत शानदार थी। उन्होंने कभी किसी से शिकायत नहीं की कि उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। खैर, अब आतिशी दिल्ली की अगले विधान सभा चुनाव तक तो मुख्यमंत्री रहने वाली हैं। देखते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में उनका सफर कितना यादगार रहता है। उनकी क्षमताएं असंदिग्ध हैं।
इस बीच, क्या केजरीवाल फिर दिल्ली के मुख्य मंत्री बनेंगे, यह कोई नहीं कह सकता । 1996 में मदन लाल खुराना ने भी मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था जब उनका नाम जैन हवाला कांड में आया था। उन्होंने भी लगभग तब वही कहा था जो अब केजरीवाल कह रहे हैं। खुराना ने कहा था कि एक बार वे कोर्ट से आरोप मुक्त होने के बाद फिर से दिल्ली के मुख्यमंत्री बन जाएंगे। हालांकि जैन हवाला केस से बरी होने के बाद भी खुराना जी मुख्यमंत्री नहीं बन सके थे। उन्हें भाजपा आला कमान ने मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर ही रखा। इस कारण से बड़बोले खुराना जी अपने नेताओं के खिलाफ बयानबाजी करने लगे थे। इसके चलते उनकी सियासी पारी का कमोबेश अंत हो गया था।
अभी अरविंद केजरीवाल को राजनीतिक रूप से खारिज करना समझदारी नहीं होगी। वे हर कदम बहुत सोच समझकर लेते हैं। अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो दिल्ली में जब आगामी विधान सभा चुनाव होंगे तो भाजपा या कांग्रेस के लिए उनकी आम आदमी पार्टी (आप) को चुनौती देने के लिए लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। आप के पास सच्चे कार्यकतार्ओं की पूरी फौज है। हालांकि इस बार के दिल्ली विधानसभा के चुनाव कांटे के होंगे। कांग्रेस और भाजपा दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे। भाजपा नेतृत्व तो बहुत बेचैन है कि जिस शहर में जनसंघ और फिर भाजपा की स्थापना हुई थी वहां की सत्ता से पार्टी 1998 से बाहर है। भाजपा को लगता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में आप और कांग्रेस के मिलकर लड़ने के बावजूद उसने दिल्ली की सातों सीटों पर कब्जा जमाया।
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उधर, कांग्रेस अगला विधान सभा चुनाव अकेले ही लड़ेगी। उसका भी दिल्ली में आधार तो है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आने वाले कुछ महीने दिल्ली की सियासत के लिए अहम होने वाले हैं। ये भी देखना होगा कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए 43 साल की आतिशी अपनी किस तरह से छाप छोड़ती हैं। उनके सामने रजिया सुल्तान और शीला दीक्षित के रूप में दो महिला शासकों के उदाहरण हैं। दोनों का कार्यकाल अपनी न्यायप्रियता के लिए याद किया जाता है।