पलकी शर्मा
भारत और कनाडा के आपसी रिश्ते रसातल में जा चुके हैं। भारत ने कनाडा से अपने छह राजनयिकों को वापस बुला लिया है और भारत में तैनात छह कनाडाई राजनयिकों को निष्कासित कर दिया है। ऐसा लगता है कि कनाडा नया पाकिस्तान बनता जा रहा है। वह आतंकवादियों का समर्थन कर रहा है और उनके लिए भारत से लड़ाई कर रहा है।
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इसके लिए केवल एक ही व्यक्ति को दोषी ठहराया जा सकता है- कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो। उनके राजनीतिक एजेंडे और अदूरदर्शिता ने दो देशों के परस्पर रिश्तों को जमींदोज कर दिया है। ट्रूडो उस हरदीप सिंह निज्जर की हत्या पर हंगामा कर रहे हैं, जो फर्जी दस्तावेजों के साथ कनाडा में घुसा था, खुद कनाडा ने उसे नो-फ्लाई लिस्ट में डाल दिया था, दर्जनों हत्याओं के मामलों में उसके खिलाफ इंटरपोल नोटिस जारी किए गए थे और भारत ने उसे आतंकवादी घोषित कर रखा था! कनाडा इस व्यक्ति के लिए लड़ने में इतनी मेहनत क्यों कर रहा है? कारण है, नासमझी, वोट-बैंक की राजनीति और वही पुराना पश्चिमी पाखंड। भारत को लेकर ट्रूडो की समझ की कमी तब पूरी तरह से उजागर हो गई, जब उन्होंने 2018 में अपने भारत-दौरे के दौरान एक खालिस्तानी को रात के खाने पर आमंत्रित किया। इसके बाद से हालात और खराब ही होते चले गए हैं।
कनाडा के मतदाताओं में सिखों की संख्या 2% से अधिक है। 2021 के चुनाव में ट्रूडो की पार्टी ने संसद में अपना बहुमत खो दिया। उन्हें खालिस्तान-समर्थक जगमीत सिंह के रूप में गठबंधन-सहयोगी मिला। इसलिए अब वे खालिस्तानियों की खुशामद कर रहे हैं और निज्जर की हत्या का इस्तेमाल खुद को कनाडा के लोगों के रक्षक के रूप में पेश करने के अवसर के रूप में कर रहे हैं। लेकिन अब तो जगमीत ने भी ट्रूडो को छोड़ दिया है। उनकी सरकार मुश्किल में है। वे जनमत सर्वेक्षणों में बुरी तरह हार रहे हैं। उन्हें आंतरिक विद्रोह का भी सामना करना पड़ रहा है। कहा जाता है कि उनकी पार्टी के लगभग 20 सांसदों ने एक पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें ट्रूडो को पद छोड़ने के लिए कहा गया है। इसलिए वे ध्यान भटकाने का काम कर रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कनाडा की खुफिया रिपोर्टों ने चीन पर ट्रूडो के पक्ष में चुनाव में दखल देने का आरोप लगाया था। क्या आपने ट्रूडो को इस बारे में बात करते सुना है? या क्या आपने किसी कनाडाई राजनेता को इस बारे में बात करते सुना है? निज्जर मामला एक अंतरराष्ट्रीय स्कैंडल बन गया, इसलिए चीन की दखलंदाजी आंखों से ओझल हो गई। इससे भी बुरी बात यह है कि कनाडा को अमेरिका जैसे सहयोगियों का समर्थन प्राप्त है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खालिस्तानियों का बचाव करते हैं। अमेरिका में ही गुरपतवंत सिंह पन्नू है, जो एक और खालिस्तानी आतंकवादी है और जिसका मकसद भारत को तोड़ना है। अमेरिका का दावा है कि भारत ने उसके खिलाफ भी हत्या की साजिश रची थी। नई दिल्ली इस मामले में जांच में अमेरिका का सहयोग कर रही है।
अगर अमेरिकी एक घोषित आतंकवादी को सुरक्षित करने के लिए इतना प्रयास कर रहे हैं, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर राष्ट्रपति पद के किसी उम्मीदवार को निशाना बनाया जाता तो वे एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे। पर हैरानी की बात है कि ऐसा नहीं है। डोनाल्ड ट्रम्प पर अमेरिका में ही तीन बार हत्या के प्रयास हो चुके हैं, लेकिन वॉशिंगटन का पूरा ध्यान पन्नू को सुरक्षित करने पर है। यह भारत पर दबाव डालने के लिए पश्चिमी राजनीति की कवायदें हैं। हमेशा की तरह, वे खुद यह तय करना चाहते हैं कि कौन आतंकवादी है और कौन नहीं। क्यूबेक में राष्ट्रवादी लोग अलगाववादी हैं। लेबनान में हिजबुल्ला आतंकवादी हैं। यमन में हूती आतंकवादी हैं। लेकिन पश्चिम में खालिस्तानी आतंकवादी नहीं हैं। शायद ट्रूडो के मुताबिक वे अगले साल के नोबेल शांति पुरस्कार के दावेदार हैं!
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लेकिन पश्चिमी देशों का दुर्भाग्य है कि अब दुनिया उनके द्वारा तय की गई परिभाषाओं को नहीं मानती। खासतौर पर भारत, जो जानता है कि ये पाखंड पश्चिम को भारी पड़ेगा। जब खालिस्तानी गिरोहों के निशाने पर पश्चिमी शहर और आम कनाडाई-अमेरिकी नागरिक आएंगे, तब उन्हें अपनी गलती का एहसास होगा। उम्मीद है, तब तक बहुत देर नहीं हो चुकी होगी!
हमेशा की तरह, पश्चिम खुद तय करना चाहता है कि कौन आतंकवादी है, कौन नहीं। क्यूबेक में राष्ट्रवादी लोग अलगाववादी हैं। लेबनान में हिजबुल्ला आतंकवादी हैं। यमन में हूती आतंकवादी हैं। पर खालिस्तानी आतंकवादी नहीं हैं!