आज से करीब 69 साल पहले बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने नागपुर में, हिंदुत्व के झंडाबरदारों की नाक के नीचे ही हिंदू धर्म त्यागने का ऐलान किया था. जहां आरएसएस मुख्यालय तीन दशक पहले से मौजूद था और आज भी है, उसी नागपुर में वर्ष 1956 के 14 अक्टूबर को हिन्दू धर्म त्याग कर डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाते समय- ‘धम्मचक्र प्रवर्तन के दिन’ जो 22 प्रतिज्ञाएं की थीं उनमें से एक प्रतिज्ञा थी कि ‘मैं सच बोलूंगा और अहिंसा के मार्ग पर चलूंगा.’ कितना हास्यास्पद है कि आज अपने को अंबेडकर के विचारों का अनुयायी और उनका संरक्षक बताने की होड़ करने वाले राजनीतिक दल संसद परिसर में ही हिंसा पर आमादा हैं. हालांकि, इससे पहले सत्ता के एक उच्च-पदस्थ पर संविधान निर्माता का गलत तरीके से नाम लेना भी (जैसा कि आरोप है) कहीं न कहीं शाब्दिक हिंसा की कोटि में रखा जा सकता है, लेकिन इसे तो भारतीय संसद के इतिहास का काला दिन ही कहा जाएगा कि उसके प्रवेश द्वार पर भीतर न घुसने देने को लेकर कथित तौर पर धक्का-मुक्की हुई, बताई जा रही है.
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिया गया अंबेडकर का ऐतिहासिक भाषण सामाजिक असमानता, जातिगत उत्पीड़न तथा तानाशाही के संभावित खतरों को लेकर ही था और उन्होंने भारतीयों से अनुरोध किया था कि वे ऐसी प्रवृत्तियों को छोड़ दें जिनसे लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होता हो. उन्होंने उसी समय यह आशंका व्यक्त की थी कि यह संविधान उतना ही अच्छा रहेगा जितने अच्छे लोगों के हाथों में यह रहेगा. उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि इस संविधान के लागू होने के बाद भी चीजें गलत होती हैं तो इसका यह मतलब नहीं होगा कि यह संविधान ही गलत है बल्कि यह मतलब होगा कि यह गलत हाथों में है. संविधान लागू करने को लेकर उनका यह भाषण बहुचर्चित है कि – ‘26 जनवरी के दिन से हम एक ऐसे समय में प्रवेश करने जा रहे हैं जो पॉप विरोधाभासों का होगा. राजनीति के स्तर पर तो हम समानता का व्यवहार देखेंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर असमानता ही रहेगी.’ उनकी यह पीड़ा और आशंका आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है.
अंबेडकर का हिन्दुत्व का अनुभव बहुत अपमानजनक था. उनके दु:ख का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि किसी भावावेश में नहीं, बल्कि अपने पूर्ण बौद्धिक परिपक्वता के समय में 13 अक्तूबर 1935 को नासिक के येवला में उन्होंने घोषणा की थी कि मैं हिन्दू पैदा तो हुआ हूं लेकिन हिन्दू होकर मरूंगा नहीं. आज धर्म, जाति और हम एक ऐसे समय में प्रवेश करने जा रहे हैं जो पॉप विरोधाभासों का होगा. राजनीति के स्तर पर तो हम समानता का व्यवहार देखेंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर असमानता ही रहेगी.’ उनकी यह पीड़ा और आशंका आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है.
अंबेडकर का हिन्दुत्व का अनुभव बहुत अपमानजनक था. उनके दु:ख का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि किसी भावावेश में नहीं, बल्कि अपने पूर्ण बौद्धिक परिपक्वता के समय में 13 अक्तूबर 1935 को नासिक के येवला में उन्होंने घोषणा की थी कि मैं हिन्दू पैदा तो हुआ हूं लेकिन हिन्दू होकर मरूंगा नहीं. आज धर्म, जाति और हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करने वाले लोग जब अंबेडकर की प्रशंसा के गीत गाते हैं तो एक जुगुप्सा सी होती है. अंबेडकर ने सामाजिक और आर्थिक समानता हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करने वाले लोग जब अंबेडकर की प्रशंसा के गीत गाते हैं तो एक जुगुप्सा सी होती है. अंबेडकर ने सामाजिक और आर्थिक समानता को आधार बनाकर संविधान में व्यवस्थाएं दीं लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने देखा कि यह आधार महज संविधान का खोखला पन्ना बनकर ही रह गया है. वे जन्म और विरासत से होने वाली असमानता को खत्म करने पर सर्वाधिक जोर देते थे लेकिन बाद के दिनों में उन्हें लगा कि असमानता खत्म करने की दिशा में सरकारी प्रयास नगण्य हैं.
आज केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी जब अंबेडकर की प्रशंसा करती है या भाजपा की मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जब कहता है कि उसके और आंबेडकर के विचारों में समानता है, तो यह बहस का मुद्दा बन जाता है और बहुत से लोग इस बात का जिक्र करने लगते हैं कि कभी केन्द्र में भाजपा की सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने अंबेडकर पर हमलावर होते हुए ‘वरशिपिंग फॉल्स गॉड’ नामक एक पुस्तक लिखी थी और किसी भी भाजपाई या संघी नेता ने उसका विरोध नहीं किया था. संघ इधर एक दशक से जो आंबेडकर प्रेम दिखा रहा है उसके राजनीतिक निहितार्थ समझे जा सकते हैं कि वह किसे लाभ पहुंचाना चाह रहा है. असल में अंबेडकर सामाजिक समता पर जोर देते हैं तो संघ सामाजिक समरसता पर. दोनों में काफी फर्क है. समता का मतलब बराबरी है तो समरसता का मतलब मिलजुल कर रहने से है. बराबरी के बिना अगर मिलजुल कर रहना है तो वह किसी मजबूरी या दबाव से ही सम्भव हो सकता है.
अंबेडकर ने संघ को उसके स्थापना काल से ही देखा था. वर्ष 1923 में वे अपनी शिक्षा पूरी कर विदेश से लौटे और सन 1925 में संघ की स्थापना हुई और नागपुर इसका मुख्यालय बना. जैसा कि सभी जानते हैं संघ मनुस्मृति को अत्यधिक महत्त्व देता है. संघ के विरोधी अक्सर आरोप लगाते हैं कि मनुस्मृति ही संघ का संविधान है और संघ उसको देश का संविधान बनाना चाहता है. आंबेडकर मनुस्मृति को सामाजिक भेदभाव और छुआछूूत बढ़ाने का प्रतीक मानते थे और यह ध्यान देने वाली बात है कि उसी मनुस्मृति को अंबेडकर ने संघ की स्थापना के महज दो साल बाद वर्ष 1927 में नागपुर में ही सार्वजनिक रुप से जला कर अपना विरोध प्रकट किया था और इसी साल महाराष्ट्र के महाड़ में एक बड़ा सत्याग्रह आन्दोलन चलाया था जिसका लक्ष्य था कि दलितों को सार्वजनिक पेयजल स्रोतों से पानी लेने दिया जाए. वर्ष 1930 में उन्होंने महाराष्ट्र के कालाराम मन्दिर में दलितों के प्रवेश को लेकर बहुचर्चित सत्याग्रह किया था. इन आंदोलनों का असर यह हुआ कि आंबेडकर को विश्व स्तर पर चर्चा मिलने लगी.
देश द्वारा 26 जनवरी 1950 को संविधान अंगीकार किए जाने के महज छह साल के भीतर ही अंबेडकर को सरकार द्वारा उसके क्रियान्वयन किए जाने के तरीके को लेकर गहरी निराशा होने लगी थी. समाज के उच्च वर्ग से मिली छुआछूत की अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को संविधान गढ़ते समय उन्होंने ध्यान में रखा था और धारा 15 व 17 द्वारा यह प्राविधान किया था कि छुआछूत को अपराध माना जाएगा और इसका उन्मूलन किया जाएगा लेकिन उन्होंने पाया कि सरकारें ऐसा कुछ भी नहींं कर रही हैं. आंबेडकर जाति को लेकर होने वाली छुआछूत से सर्वाधिक आहत थे और अपने स्कूल के दिनों से लेकर वयस्क होने तक इस अपमान को बार-बार झेला था. जिन्हें हम दलित कहते हैं पहले उनको घृणापूर्वक अछूत कहा जाता था और इस बात से आंबेडकर बहुत आहत होते थे. बौद्ध धर्म अपनाने से पहले वे सिख धर्म अपनाना चाहते थे लेकिन उन्होंने देखा कि वहां भी जातिगत समस्याएं विद्यमान हैं. यहां यह ध्यान रखना होगा कि आंबेडकर धर्म नहीं बदलना चाहते थे बल्कि वे जाति को खत्म करना चाहते थे जो कि हिन्दू धर्म में रहते हुए उन्हें सम्भव नहीं लग रहा था. इसीलिए अन्य धर्मों का गहन अध्ययन और उनके सामाजिक रहन-सहन की वास्तविक स्थिति देखने- समझने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय लिया, तो उनके साथ पांच लाख से अधिक लोगों ने धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म (धम्म) अपना लिया. उस समय के लिहाज से किसी स्थान पर एकत्रित होने वाली यह बहुत बड़ी संख्या मानी गई थी.
कांग्रेस और भाजपा जैसे दल अंबेडकर पर कॉपीराइट लेने के फेर में हैं. भाजपा कहती है कि कॉंग्रेस ने अपने इतने लम्बे शासनकाल में आंबेडकर को उचित महत्त्व ही नहीं दिया, उनका विरोध किया. इतना ही नहीं, उन्हें चुनाव हरा दिया था. इधर कांग्रेस कहती है कि अंबेडकर तो हिन्दुत्व और संघ दोनों के घोर विरोधी थे. भाजपा जिस चुनाव की बात करती है वह देश का पहला आम चुनाव था और उस वक्त अंबेडकर नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने थे. अंबेडकर की एक अपनी राजनीतिक पार्टी ‘शेड्यूल कॉस्ट फेडरेशन’ थी जिसके टिकट पर वे चुनाव लड़े थे और चाहते थे कि कॉंग्रेस उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी न उतारे. पहले तो इस पर सहमति थी लेकिन अंबेडकर ने जब चुनावी रणनीति के तहत समाजवादियों से समझौता कर लिया तो कांग्रेस के महाराष्ट्र अध्यक्ष एस.के. पाटिल ने इससे चिढ़कर अपना उम्मीदवार उतार दिया, जिसने आंबेडकर को हरा दिया. हालॉकि इसके दो साल बाद ही महाराष्ट्र के भंडारा में उपचुनाव हुआ. अंबेडकर उसमें भी मैदान में उतरे लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी से वह चुनाव भी हार गए. भाजपा इसी को अंबेडकर के प्रति कांग्रेस की भितरघात बताती है.
हालॉंकि खुद भाजपाशासित राज्यों में आंबेडकर की प्रतिमाओें को तोड़ने व निरादर करने की तमाम घटनाएं बताती हैं कि भाजपा अंबेडकर को वास्तव में कितना महत्त्व देती है. अभी दिसम्बर 2024 में ही महाराष्ट्र के परभणी में अंबेडकर प्रतिमा को क्षति पहुंचाने का मामला बहुत उग्र हो गया था. अक्तूबर 2023 में बेगूसराय, बिहार में अंबेडकर-प्रतिमा क्षतिग्रस्त करने की घटना सुर्खियों में रही. मामले में पुलिस ने प्राथमिकी तो दर्ज की लेकिन आगे कोई कार्यवाही नहीं हुई. जुलाई 23 में लखनऊ, तो जून 23 में हरियाणा के भाटला गांव में प्रतिमा क्षतिग्रस्त की गयी. अप्रैल 23 में जेवर गॉव नोएडा में तो फरवरी 2019 में मेरठ में ऐसी ही घटना हुई. लगातार हो रही ये घटनाएं बताती हैं कि जिन महापुरुषों के आदर्श, उनकी शिक्षाएं कुछ लोगों को रास नहीं आतीं वो अपनी हताशा व खिसियाहट निकालने के लिए मूर्तियों को तोड़ते हैं. महात्मा गॉंधी की मूर्तियों को तोड़ने व पुतलों पर गोली मारने की घटनाएं एक खास विचारधारा वाले लोग करते ही रहते हैं.
ध्यान रहे कि कुछ वैचारिक मतभेदों के बावजूद महात्मा गांधी अंबेडकर की योग्यता व नेतृत्व क्षमता का आदर करते थे. वर्ष 1932 के बहुचर्चित पूना समझौता जिसे ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है, और जो भारतीय राजनीति में दलितों के नेतृत्व व प्रतिनिधित्व को लेकर था, उसमें अगर सवर्णों के पक्ष से महामना मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किया था तो दलितों की तरफ से गांधी जी और आंबेडकर थे! याद रहे कि संविधान सभा के चेयरमैन पद पर आंबेडकर का चुनाव करने में गांधी जी की ही भूमिका प्रमुख थी. इसी प्रकार वर्ष 1930 से 1932 के बीच होने वाले गोलमेज सम्मेलनों में अंबेडकर को रखने में गॉंधी ही प्रमुख थे. वर्ष 1946 में हुए संविधान सभा के चुनाव में गांधी जी के कहने पर नेहरू व पटेल ने आंबेडकर की मदद की थी.
राजनीतिक दलों की वोट की भूख दिनोंदिन सनक की सीमा पार करती जा रही है. ऐसा लगता है कि आज देश में जो भी योजना बनती है या जो भी राजनीतिक-प्रशासनिक कार्य व्यापार होता है उसकी चिन्ता में वोट बैंक ही रहता है. सन 2011 के आँकड़ों के अनुसार देश में दलित और आदिवासी समुदाय की संयुक्त आबादी 25 प्रतिशत से अधिक है. यह एक बड़ा वोट बैंक है. यद्यपि यह आबादी देश भर में बिखरी हुई है लेकिन बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में यह निर्णायक स्थिति में भी है. जाहिर है, सभी राजनीतिक दलों की निगाह अंबेडकर के बहाने दलित वोटों को कब्जाने पर है. वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश में भाजपा के हाथों सत्ता गंवाने के बाद अखिलेश यादव ने कहा था कि मुझे यह समझ में आ गया है कि यहां लोग समझाने पर नहीं, फुसलाने पर वोट देते हैं. आज भारतीय मतदाता और चुनावी व्यवस्था का यही कड़वा सच बन गया है. सारे राजनीतिक दलों में मानों इसी बात की होड़ सी लगी है कि मतदाताओं को कैसे फुसलाया जाए और जाहिर है कि जो सत्ता में होते हैं उनके पास मतदाताओं को फुसलाने के संसाधन और अवसर ज्यादा होते हैं. कहीं न कहीं आंबेडकर भी टूल की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं.