लक्ष्मी नारायण
जब से सुना है कि सुट्टा लगाने वालों यानि बीड़ी-सिगरेट फूंकने वालों पर सार्वजनिक रूप से अपनी धुंआदार कला का प्रदर्शन करने पर प्रतिबंध और जुमार्ने का हथौड़ा लगने जा रहा है, मेरी बाँछें खिल उठी हैं क्योंकि बीड़ी-सिगरेट के खाँसीदार धुएँ का अभ्यस्त न होने के बावजूद मुझे कई बार हठधर्मी बीड़ीबाजों के प्यारे धूएँ को विवशता में अनजाने में हलक में उतारना पड़ा है। आप इसके मोहपाश से कितना भी बचना चाहें, बंडलबाज आँख मूंदकर सिगरेट के नशे का परम आनंद उठाते हुए, धुएँ के बादल आप पर छोड़ते हुए सफाई से पतली गली से निकल जाते हैं तथा आप खाँसते-खौंसते अपने फेफड़ों पर अत्याचार करने लगते हैं। हम एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक इन फालतू बातों को चुटकियों में उड़ा देते हैं और लापरवाही से कहते हैं कि ‘यार सब चलता है।
हमें नियमों और सीमाओं की टांग तोड़ने में बड़ा मजा आता है। हम चलते-फिरते कहीं भी मुँह फाड़कर धप्प से थूक देते हैं। आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए हम कार्यालय को भी नहीं बख्शते तथा इसकी सीढ़ियों, कोनों, दीवारों पर अपनी कृपा दृष्टि बरसाते हुए उन्हें पान की पीक के आकर्षक और अद्भुत रंग से रंग देते हैं। शोले के गब्बर की तरह तम्बाकू हथेलियों पर रगड़ते हुए, गाय की भाँति जुगाली करते हुए इसके चबाए हुए अवशेष कहीं भी उगल देते हैं। दारू के अद्धे-पव्वे चढ़ाकर निर्भीकता और शान से नौकरी करते हैं और तब भी यही कहते हैं कि गर्व से कहो, हम भारतीय हैं। एक बिल्डिंग की बाहरी दीवार पर जो सभ्य नागरिकों द्वारा उदारतापूर्वक पहले से ही जगह-जगह काली कर दी गई थी, लिखा देखा कि यहां पोस्टर लगाना मना है और वहीं पर तीन-चार अटपटे पोस्टर दीवार पर प्यार से चिपके हुए नसीहत देने वालों को खुले आम ठेंगा दिखा रहे थे। हमारे भेजे में कितना ठूँसा जाता है कि पानी की बूँद-बूँद कीमती है लेकिन प्रसाधन-गृहों में अक्सर देखा है कि लोग मुंबई वाले ‘भाई’ की शैली में स्टाइल से गरदन टेढ़ी करके अपनी शक्लो-सूरत पर न्यौछावर होते हुए, अपनी पीछे की जेब से कभी साफ रही कंघी निकालकर उसे नल के बहते हुए पानी में भिगो-भिगोकर जुल्फें संवार रहे होते हैं और वाशबेसिन में इधर-उधर कुलाचें भरता हुआ पानी अपनी किस्मत पर दहाड़ मार-मार कर रो रहा होता है।
हमारे देश में वीआईपी लोगों की सहूलियत के लिए आम जनता का तेल निकालने की पुरानी परम्परा है। इन अति संवेदनशील छुई-मुई के पौधों को सड़क से सुरक्षित निकालने के लिए चारों तरफ ऐसी किलेबंदी कर दी जाती है कि परिंदा भी पर न मार सके और आम लोगों की जान सांसत में डाल दी जाती है। बेचारा आम आदमी बंदूकों-डंडों के साए में आक्रोश से दॉंत पीसकर रह जाता है क्योंकि उसे पता है कि अगर उसने थोड़ी सी भी शान-पट्टी दिखायी तो बेभाव के डंडे पड़ेंगे। अभी हाल ही में महाकुंभ में दिखा देखने वालों को ऐसा महा नजारा। हिन्दुस्तान में सुख और दुख दोनों आरक्षित है। दुख आमजन को छोड़ना नहीं चाहता, तो सुख पर वीआईपी लोग अथवा उनके तलवे चाटने वाले चमचों के ऐश के लिए सुरक्षित है। आम आदमी अगर सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त हो जाए तो वह असंवेदनशील जनता की कृपा से अनाथ की तरह सड़क पर घंटों पड़ा रहता है और अनेक दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर बेचारा लावारिस की भांति चुपचाप ऊपर की ओर प्रस्थान कर जाता है। मगर इसके विपरीत किसी बड़े आदमी को सड़क पर हल्की सी खरोंच लगने पर भी अफरा-तफरी मच जाती है और अस्पतालों में डॉक्टर गंभीर से गंभीर रोगियों को उनके भाग्य के सहारे परे पटककर इन तोंदू महान आत्माओं की जी-हुजूरी, सेवा-सुश्रूषा में लग जाते हैं।
हिन्दुस्तान में असली-नकली प्रत्येक नस्ल के डॉक्टरों की पौ-बारह है, फिर चाहे वे झोलाछाप या आरएमपी डॉक्टर ही क्यों न हों! इनके अलावा डॉक्टरों के डॉक्टर झाड़-फूंक वाले बंगाली बाबा जैसे ओझा डॉक्टर भी हैं जो अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को चुटकियों में उल्लू बनाकर, बलि के बकरे मरीज पर भूत-प्रेत की छाया बताकर पूजा-पाठ, झाड़-फूंक के नाम पर उनकी अंटी से खूब पैसे ऐंठते हैं जबकि वे स्वयं भूत-प्रेत से भी भयंकर होते हैं और अपने फंदे में आए व्यक्ति का पीछा आसानी से नहीं छोड़ते हैं। इन्हीं को क्यों दोष दें, हमारे महानगरों के बड़ी-बड़ी, सच्ची-झूठी डिग्रियों वाले डॉक्टर भी किसी से कम नहीं! वे अपने खाते का बढ़ता स्वास्थ्य देखते हैं मरीज में जाए कोई गम नहीं। आपरेशन के दौरान इतनी टेंशन में रहते हैं कि कभी मरीज के पेट में तौलिया तो कभी कैंची भूल जाते हैं, कभी सर्जिकल ब्लेड छोड़ देते हैं कि रख लो, बाद में निकलवा लेना, अभी हम व्यस्त हैं। जब डॉक्टरों की बात चली है तो बीमारी का जिक्र होना स्वाभाविक है। आजकल ‘बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप’ सभी ने एक नई मोहक बीमारी को बड़े लाड़ से गले से लिपटा रखा है और वो है मोबाइल को चौबीस घंटे कान से चिपकाए रखना। इस निराली मगर लोगों की जान से प्यारी बीमारी ने उनको एक हाथ से टुंडा बना दिया है। नहाते-धोते, खाते-पीते और चलते-फिरते यह बच्चा फोन एक हाथ को लुंज-पुंज करते हुए कान से चिपका रहता है। मजे की बात यह है कि लोग चेहरे पर अमिताभ बच्चन की गंभीरता लादकर इस पर अधिकतर शक्ति कपूर की तरह बेसिर-पैर की बातें करते हैं। फिर, टेलीफोन के इस छोटे भाई को ‘स्टेटस सिंबल’ भी तो बना दिया गया है, ऐसे में गले में पट्टे की तरह, हाथ में पर्स की तरह और जेब में डायरी मानिंद सजाकर कौन अपनी प्रतिष्ठा में चारचांद नहीं लगवाना चाहेगा। अब तो गर्भ से बाहर आए, चंद बहार बिताए बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। आसमानी कीमत वाली पढ़ाई तो दरकिनार, वे बिना मोबाइल देखे आज खाने से ज्यादा प्रिय नूडल्स भी नहीं छूते हैं। किताब में ‘आर’ भले शुरू हो रोने से, पर मोबाइल भद्दे ‘रील्स’ की समझ पक्की कर रहा है। वाकई, जमाना गजब चमक और चमत्कारी ढंग से तरक्की कर रहा है !