तीर्थराज प्रयाग स्थित गंगा, यमुना, सरस्वती (अंतर्ध्यान) के पवित्र त्रिवेणी/संगम तट पर सज-धज कर तैयार प्रयागराज का महाकुंभ मेला परिसर मानो पलक-पांवड़े बिछाकर अतिथि देवो भव की मुद्रा में आगंतुक सनातनियों को अंकवार में भरने को तत्पर है. जहां एक ओर सनातन की सांस्कृतिक विरासत को समर्पित, अपने अनेक दिव्य द्वारों, पांडालों, नए-पुराने घाटों, छोटी-बड़ी नावों, पुलों के साथ संगम तीरे उभर रही धर्म नगरी भाव-भजन और भक्ति से सराबोर संतों-महंतों, पण्डो-पुजारियों, कल्पवासियों की प्रतीक्षा में है. वहीं, दूसरी ओर गड़बड़ी फैलाने की मंशा से मेला परिसर में आनेवाले अराजक तत्वों से निपटने और धार्मिक-व्यक्तित्वों तथा भोले भक्तों की रक्षा-सुरक्षा को लेकर भी चाक चौबंद व्यवस्था की तैयारियां भी अंतिम चरण में हैं.
बात करें कुंभ के उत्पत्ति की तो यह परंपरा ऋग्वेद काल से चली आ रही है. महाकुंभ से जुड़े दस्तावेज बताते हैं कि ऋग्वेद में कुंभ (कुंभक यानी अमृत का पवित्र घड़ा) और उससे जुड़े स्नान, अनुष्ठान आदि का उल्लेख मिलता है. उसके अनुसार एक विशेष अवधि के दौरान संगम में स्नान करने से पुण्य का लाभ तो मिलता ही है. मान्यता यह भी है कि इस स्नान से न केवल नकारात्मक प्रभाव नष्ट होते हैं, बल्कि आत्मा का भी कायाकल्प हो जाता है. यही नहीं, अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी ‘कुंभ’ की पवित्र व सकारात्मक चर्चा है. चर्चा में कहा गया है कि जब सागर मंथन से निकले अमृत कुंभ पर कब्जा जमाने को लेकर देवताओं और राक्षसों में युद्ध (झगड़ा) होने लगा और राक्षस घड़ा छीनने में सफल हो गए, तो देवों में श्रेष्ठ विष्णु ने ‘विश्व मोहिनी’ रूप धारण करके राक्षसों को रिझाकर अमृत कुंभ वापस ले लिया था. जब विष्णु घड़ा लेकर स्वर्ग की भागे तो उसमें अमृत की कुछ बूंदें आर्यावर्त (आज के भारत) की धरती के चार स्थलों पर गिर गई थीं. इन पवित्र स्थलों को ही हम आज हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक के नाम से जानते हैं. इन्हीं चार स्थलों पर बारी-बारी से हर चौथे वर्ष कुंभ मेला आयोजित किया जाता है. कुंभ मेला दुनिया के स्तर पर आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है. प्रयागराज का सामान्य कुंभ भी विशिष्ट रूप में मान्य है.
बारहवें वर्ष का कुंभ ‘महाकुंभ’ कहलाता है. आस्था और संस्कृति का यह महान समागम करीब डेढ़ महीने तक चलता है. आम कुंभ में ही लाखों की संख्या में पहुंचने वाले स्नानार्थियों की कुल संख्या इस महाकुंभ करीब चार करोड़ होने का अनुमान है. भक्तिभाव से भरे ये श्रद्धालु यहां गंगा, यमुना और रहस्य बनी सरस्वती के पवित्र संगम में आस्था की डुबकी लगाने आते हैं. इस समागम में भारत के साथ ही दुनिया भर से तपस्वी, संत, साधु, साध्वी, कल्पवासी स्नानार्थी उपस्थिति दर्ज कराते हैं.
विद्वानों की मानें तो यहां वैदिक वांग्मय की धवल धरोहरों की आभा, आकर्षण, उद्घोष और समर्पण भाव से श्रद्धालु स्वयं खिंचे चले आते हैं. और देश ही नहीं, पूरी दुनिया का सनातनी अपनी परंपरा को आधुनिकता और वैज्ञानिकता के सातत्य में देखने को व्याकुल हो यहां चला आता है. आप जानते हैं कि आधुनिकता की उन्मत्त गति की विशेषता वाली दुनिया में कुछ ही आयोजन ऐसे होते हैं जो करोड़ों लोगों को अपने से बड़े उद्देश्य की खोज में एकजुट करने की क्षमता रखते हैं. प्रयागराज का यह महाकुंभ मेला 12 वर्षों की अवधि में होने वाला एक ऐसा ही आस्था का विशाल मेला है जो इसका जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत करता है. प्रयागराज का महाकुंभ मेला दुनिया भर में सबसे बड़ा शांतिपूर्ण सम्मेलन है, जिसमें करोड़ों तीर्थयात्री आते हैं जो अपने पापों को त्रिवेणी के जल से धोने और आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने के लिए पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं. महाकुंभ सिर्फ एक मेला नहीं है बल्कि यह आस्था, परंपरा और सनातन संस्कृति का संगम है. श्रद्धालुओं के लिए यह एक पवित्र एहसास है, आस्था का साक्षात प्रतीक है जिसका इंतजार हर चौथे और खासकर बारहवें वर्ष सभी श्रद्धालुओं को बेसब्री से रहता है.
प्रयागराज का कुंभ मेला दुनिया भर में सबसे बड़ा सम्मेलन है, जिसमें करोड़ों तीर्थयात्री आते हैं जो अपने पापों को शुद्ध करने और आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने के लिए पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं. अत: सर्वविदित सत्य है कि महाकुंभ करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है. महाकुंभ सिर्फ एक मेला नहीं है बल्कि यह आस्था, परंपरा और हिंदू संस्कृति का संगम है. श्रद्धालुओं के लिए यह एक पवित्र एहसास है जिसका इंतजार सभी श्रद्धालुओं को बेसब्री से रहता है.
प्रयागराज में लगने वाले महाकुंभ का महत्व मानव इतिहास में सबसे अधिक माना गया है. दरअसल, यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है. जिस वजह से यह स्थान अन्य जगहों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है. वैसे तो इन तीन नदियों में एक सरस्वती नदी लगभग लुप्त हो चुकी हैं लेकिन वह धरती के धरातल में आज भी बहती हैं. ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसलिए प्रयागराज में इसका महत्व अधिक माना जाता है. जबकि इस साल 13 जनवरी से लगने जा रहा महाकुंभ का मेला कई मायनों में बेहद खास होने वाला है. इस बार 144 साल बाद पूर्ण महाकुंभ लग रहा है. सरल शब्दों में समझें तो 12 साल लगातार 12 वर्षों के तक लगने के बाद पूर्ण महाकुंभ लगता है. जो 144 साल बाद आता है. अत: यह संयोग अत्यंत ही दुर्लभ और अविस्मरणीय है. यहीं कारण है कि वैश्विक सनातनी तीर्थयात्री 13 जनवरी से 26 फरवरी तक प्रयागराज की धरती पर अपना समय बिताना चाहता है ताकि वह अपनी इस यात्रा में वह आध्यात्मिक अनुष्ठानों की एक अनोखी श्रृंखला में भाग ले सके और एक ऐसी यात्रा पर निकल सके जो उसे भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सीमाओं को पार कराती हो.
महाकुंभ का इतिहास
प्रयागराज में कुंभ मेले के आयोजन का इतिहास सदियों पुराना है. वेद विशेषज्ञों अनुसार इसकी चर्चा ऋग्वेद में भी है. वहीँ, समुद्र मंथन के बारे में शिव पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, भविष्य पुराण समेत लगभग सभी पुराणों में कुंभ के आयोजन का जिक्र किया गया है. कुछ ग्रंथों में बताया गया है कि कुंभ मेला का आयोजन 1850 साल से भी ज्यादा पुराना है. आदि शंकराचार्य द्वारा महाकुंभ की शुरूआत की गई थी. जबकि कुछ विद्वानों का कहना है कि गुप्त काल के दौरान से ही इसकी शुरूआत हुई थी. लेकिन सम्राट हर्षवर्धन से इसके प्रमाण देखने को मिलते हैं. प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब अपनी भारत यात्रा के बाद उन्होंने कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया था. इसी के साथ उन्होंने राजा हर्षवर्धन का भी जिक्र किया है.
प्रयागराज में ही महाकुंभ क्यों?
यह सत्य है कि प्रयाग में महाकुंभ का समय खास वैज्ञानिक गणना के आधार पर सुनिश्चित होता है. इसके पीछे ग्रहों का शुभ आकाशीय संयोजन, ब्रह्मांडीय महासागर का मंथन एवं उससे प्राप्त अमरता के अमृत के लिए देवताओं और राक्षसों के बीच हुए युद्ध को आधार मानते हैं. मान्यताओं के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश बाहर आया था तब देवताओं और राक्षसों के बीच संघर्ष को कम करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया था. इसके बाद भी संघर्ष काफी ज्यादा बढ़ गया तो उन्होंने इंद्र देव के पुत्र जयंत को यह अमृत कलश सौंप दिया गया. जयंत कौवे का रूप धारण कर राक्षसों से अमृत कलश को छिनकर उड़ चले थे. प्रयाग में स्थिति इतनी प्रतिकूल हो गई कि लगा कि असुर अमृत कलश पर कब्जा कर लेंगे. इस विषम परिस्थिति से उबरने के लिए सूर्य, चंद्रमा, शनि और बृहस्पति को घड़े की रक्षा के लिए युद्ध करना पड़ा और वे विजित भी हुए. इस भीषण युध्ह में विजय का कारण इन चरों ग्रहों का एक साथं युध्ह करना था, अत: माना जाता है कि इस मुहूर्त में संगम पर कल्पवास और स्नान करना सभी को अपार शक्तिशाली और जरा-मरण से मुक्ति देता है. यह 144 वर्षों के बाद है कि सभी चार ग्रहों की स्थिति एक सीध में है, और अमावस्या (29 जनवरी) से तीन घंटे पहले, महत्वपूर्ण रूप से, ‘पुख (पुष्य भी) नक्षत्र’ भी चार ग्रहों के साथ संरेखित होगा. इस प्रकार, पिछले 144 वर्षों में सभी महाकुंभ में सबसे शुभ 2025 में है.
आस्था-विज्ञान का अद्भुत संगम ‘महाकुंभ’
महाकुंभ मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह मानव और ब्रह्मांड के बीच संबंधों का अद्भुत संगम है. वहीँ, महाकुंभ का समय और आयोजन एस्ट्रोनॉमिकल घटनाओं पर आधारित है. यह मेला तब आयोजित होता है जब गुरु ग्रह, सूर्य और चंद्रमा का विशेष संयोग में होता है. गुरु का 12-साल का परिक्रमा चक्र और पृथ्वी के साथ इसकी विशेष स्थिति आयोजन को शुभ बनाती है. जबकि आयोजन स्थल और समय दोनों को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्रों और ग्रहों की स्थिति के आधार पर निर्धारित किया गया है. यह भी एक वैज्ञानिक सत्य है कि गुरु ग्रह गैलेक्सी में उपस्थित विशालकाय उल्का पिंडों को समय-समय पर अपने में समाहित करता रहता है जबकि यह प्रक्रिया उस समय और तेज हो जाती है जब यह ग्रह पृथ्वी के बेहद करीब होता है. कुंभ के समय ही वह योग होता है कि गुरु ग्रह पृथ्वी के बेहद करीब आकर उसके आस-पास के विशालकाय उल्का पिंडों को अपने में समाहित कर लेता है और धरती को बेहद सुरक्षित बना देता है. इससे पता चलता है कि हमारे पूर्वज एस्ट्रोनॉमिकल साइंस और जैविक प्रभावों की गहन जानकारी रखते थे.
कुंभ का भौगोलिक महत्व
यह स्थापित सत्य है कि कुंभ मेला के आयोजन स्थलों का चयन भू-चुंबकीय ऊर्जा के आधार पर किया गया है. ये स्थान, विशेषकर नदी संगम क्षेत्र, आध्यात्मिक विकास के लिए अनुकूल माने गए हैं. प्राचीन ऋषियों ने इन स्थानों पर ध्यान, योग और आत्मिक उन्नति के लिए उपयुक्त ऊर्जा प्रवाह का अनुभव किया और उन्हें पवित्र घोषित किया था. वैज्ञानिकता के आधार पर देखे तो कुंभ मेला मानव शरीर पर प्लैनेट्स और मैग्नेटिक क्षेत्रों के प्रभाव को समझने का एक बढ़िया समय है. बायो-मैग्नेटिज्म के अनुसार, मानव शरीर चुंबकीय क्षेत्रों का उत्सर्जन करता है और बाहरी ऊर्जा क्षेत्रों से प्रभावित होता है. कुंभ में स्नान और ध्यान के दौरान महसूस की जाने वाली शांति और सकारात्मकता का कारण इन्हीं ऊर्जा प्रवाहों में है. ग्रहों की स्थिति का न केवल आध्यात्मिक महत्व है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से यह पृथ्वी और मानव पर पड़ने वाले प्रभावों को भी दशार्ती है. गुरु, सूर्य और चंद्रमा का विशेष संयोग पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को प्रभावित करता है. इन खगोलीय संयोगों के दौरान कुंभ में स्नान का महत्व अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय है.
तन-मन की शुद्धि के लिए महा कुंभ
प्रयागराज में महाकुंभ के समय माघ माह में एक माह का कल्पवास व्रत किया जाता है जिसका उद्देश्य तन और मन में उपस्थित विकारों निकालकर मोक्ष की राह की ओर अग्रसर होना है. एक महीने का यह व्रत पूरे वर्ष शरीर तथा मन को ऊर्जा सम्पन्न करता है. इस कल्प का तात्पर्य यह है कि सृष्टि के सृजन से लेकर अब तक 11 कल्प व्यतीत हो चुके हैं और 12वां कल्प चल रहा है. ‘कल्प’ का एक अर्थ तो सृष्टि के साथ जुड़ा है और दूसरे ‘कल्प’ का तात्पर्य कायाकल्प से है. कायाकल्प अर्थात् शरीर का शोधन. इस कल्प में गंगा तट पर रहकर गंगाजल पीकर एक वक्त भोजन, भजन, कीर्तन, सूर्य अर्घ्य, स्नानादि धार्मिक कृत्यों के समावेश से शरीर का शोधन अर्थात शरीर और मन को आध्यात्मिक चेतना से जोड़ने की प्रक्रिया ही कल्पवास की वैज्ञानिक प्रक्रिया है.
कुंभ मेले का आर्थिक महत्व
प्रधानमंत्री ने हाल ही में महाकुंभ 2025 की तैयारी के लिए उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में कुल 5,500 करोड़ की 167 विकास परियोजनाओं का अनावरण किया. 11 भारतीय भाषाओं में श्रद्धालुओं की मदद के लिए बहुभाषी एआई-संचालित चैटबॉट, सह सहायक को पेश किया गया. लगभग 4,000 हेक्टेयर में फैले महाकुंभ में 40-45 करोड़ तीर्थयात्रियों के आने की उम्मीद है, जिससे यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समागम बन जाएगा. उत्तर प्रदेश सरकार के आर्थिक सलाहकार कि माने तो अनुमानित 45 करोड़ तीर्थयात्रियों के साथ, महाकुंभ से कम से कम 2 लाख करोड़ रुपये की आय हो सकती है. एक दूसरा अनुमान कहता है कि यदि प्रत्येक तीर्थयात्री 8,000 रुपये खर्च करता है, तो कुल आर्थिक गतिविधि 3.2 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो सकती है, जो इस आयोजन के विशाल वित्तीय महत्व को दशार्ता है.
उन्नत सुविधाएं और कनेक्टिविटी क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव डालेगी. सीआईआई की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार, 2013 में हुए महाकुंभ से कुल 12,000 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था, जिसमें हवाई अड्डों और होटलों के बुनियादी ढांचे में सुधार शामिल था, जबकि 2019 में कुंभ मेले से कुल 1.2 लाख करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था. सीआईआई के अनुसार, हालांकि कुंभ मेला आध्यात्मिक और धार्मिक प्रकृति का है, लेकिन इससे जुड़ी आर्थिक गतिविधियों ने 2019 में विभिन्न क्षेत्रों में छह लाख से अधिक लोगों को रोजगार दिया. योगी सरकार राज्य की पर्यटन अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रही है, जिसमें आने वाला महाकुंभ इस पहल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. उम्मीद है कि इस शानदार आयोजन से संबंधित प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोजगार की संभावनाओं से लगभग 45,000 परिवार लाभान्वित होंगे और विभिन्न क्षेत्रों में लाखों लोग लाभान्वित होंगे.
कुंभ और राजनीति
बदलते समय के सापेक्ष में कुंभ मेले पर राजनीति भी होती रही है. विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं अपने सहूलियतों और वोट बैंक के हिसाब से ही होते है. वहीं यह सत्य भी है कि जो दल सत्ता में होता है वह अपनी सुविधा और राजनीतिक मंसूबों के लिहाज से काम करता है. लेकिन यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि भारत में होने वाले कुंभ मेलों की परम्परा किसी पार्टी या दल विशेष की अनुकम्पा या कृपा का मोहताज नहीं होता है बल्कि यह सनातन परंपरा की एक जीवनात धरोहर है. यह परंपरा हजारों सालों से लोगों के जीवन में रची-बसी है, वे इसे अपने मोक्ष का आधार मानते हैं. महाकुंभ मेले में जुटने वाली भीड किसी के बुलावे पर नहीं आती है बल्कि वह स्वत: ही खिंची चली आती है. कोई भी सरकार या दल सिर्फ उसकी तरफदारी कर सकता है.
पंडित मदन मोहन मालवीय से एक अंग्रेज अधिकारी ने पूछा कि भारत एक गरीब देश है, लोगों को खाने के पैसे नहीं है, जगह-जगह अकाल पड़ा है, आवागमन का साधन नहीं है, सरकार कोई मदद नहीं करती है फिर भी लाखों की भीड कैसे आ जाती है वो भी एक निश्चित समय-काल में? मालवीय जी ने एक अच्छा उत्तर दिया और कहा कि मात्र दो पैसे में ये सारी भीड़ इक्कठा हो जाती है. विस्तार में बताया कि ये सभी लोग किसी के बुलावे पर नहीं आते हैं बल्कि मात्र दो पैसे के ठाकुर प्रसाद के पंचांग को देखकर आ जाते हैं जो उनकी अपनी क्षमता-समय-उपलब्धता के अनुसार होती है. अत: कह सकते हैं कि भारत की पहचान ‘महाकुंभ’ स्वत:स्फूर्त संगठित, संतुलित, व्यवस्थित और उपस्थित एक आह्वान है जो किसी के आमंत्रण का इन्तजार नहीं करती है. हा, समय के साथ कुंभ में सुविधाओं के स्तर पर विभिन्न सरकारें अच्छा-बुरा कर सकती है जो उसकी मानसिकता को दशार्ता है. इस संदर्भ में केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की योगी सरकार ने महाकुंभ-2025 में सराहनीय प्रयास और कार्य किया है. वैश्विक स्तर की तकनीक के सहारे लोगों की सुविधाओं को बढ़ाया गया है. प्रयागराज में लाखों लोगों के आने-जाने-ठहरने, खाने-पीने के साथ ही अति विशिष्ट व्यवस्था की गई है जबकि अति विशिष्ट संस्कृति को भी खासा तरजीह दिया गया है.
कुंभ की प्रासंगिकता
साल 2025 का महाकुंभ, 13 जनवरी से शुरू होकर, करोड़ों श्रद्धालुओं को प्रयागराज में एकत्रित करेगा. यह न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह विज्ञान और संस्कृति का अद्वितीय संगम भी है. खगोल विज्ञान, भूगोल और आध्यात्मिकता के इस मेल से यह मेला मानवता के ब्रह्मांडीय संबंधों को समझने का अद्भुत अवसर प्रदान करेगा. महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह प्राचीन भारत की गहन वैज्ञानिक और खगोलीय समझ का प्रतीक है. यह मेला हमें यह सिखाता है कि आस्था और विज्ञान के बीच कोई विभाजन नहीं है, बल्कि ये दोनों मिलकर मानवता के लिए मार्गदर्शक बनते हैं. सभी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में हर उत्सव और अनुष्ठान के पीछे शास्त्रीय आधार होता है.
उन्हें जोश और उत्साह के साथ-साथ एक ठोस वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक आधार के साथ समाहित किया जाता है. ये सभी विशेषताएँ मिलकर किसी त्योहार को मनाने या अनुष्ठान करने का कारण प्रदान करती हैं. इन अनुष्ठानों का उद्देश्य किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाना है जहाँ वे पूर्ण मनोवैज्ञानिक संतुलन, नवीनीकरण और विश्राम प्राप्त कर सकें. इस अर्थ में महाकुंभ मेला एक ऐसा उत्सव है जिसमें विज्ञान, ज्योतिष और आध्यात्मिकता का समावेश होता है. महाकुंभ की तिथियों की गणना वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करके की जाती है, जिनमें से अधिकांश ग्रहों की स्थिति का उपयोग करते हैं. जब बृहस्पति ग्रह ज्योतिषीय राशि वृषभ में प्रवेश करता है, तो यह सूर्य और चंद्र के मकर राशि में प्रवेश के साथ मेल खाता है. ये परिवर्तन जल और वायु को प्रभावित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रयागराज के पवित्र शहर में पूरी तरह से सकारात्मक वातावरण बनता है. बस उस पवित्र स्थल पर होना और गंगा में पवित्र डुबकी लगाना आध्यात्मिक रूप से आत्मा को प्रबुद्ध कर सकता है, जिससे शारीरिक और मानसिक तनाव कम हो सकता है.