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    इतिहास का निर्माण हो रहा है
    समाज

    इतिहास का निर्माण हो रहा है

    Chetan PalBy Chetan PalOctober 5, 2024No Comments4 Mins Read
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    राहुल देव

    युगपुरुष ने इन चुनावों के हर चरण में उत्तरोत्तर इसके प्रमाण दिए हैं कि भाषा की आक्रामकता, जहरीलेपन, विभाजकता, द्वेषपूर्णता, झूठ और भारत की सामाजिक एकता को खंडित और माहौल को दूषित करने वाले आख्यान गढ़ने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। ऊपर से ऐसा विराट अहंकार। अब वे अपने आप को एक अन्य पुरुष के रूप में प्रस्तुत करते हैं। मनोविज्ञान में इसे आत्ममुग्धता/आत्मरति कहते हैं। इसमें व्यक्ति स्वयं को एक वीरगाथा नायक के रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें आत्म-महत्व की बढ़ी हुई भावना, ध्यान और प्रशंसा की अत्यधिक आवश्यकता, सतही रिश्ते और सहानुभूति की कमी शामिल होती है। एक सीमा के बाद यह समस्या बन सकता है। इसके लक्षणों में एक यह भी है कि आत्मकामी व्यक्ति को इसका अहसास नहीं होता। वह उसी में जीने लगता है। भारतीय संस्कारों में बड़बोलापन अच्छा नहीं माना जाता। हमारे यहाँ विनम्रता-विनय सद्गुण माने जाते हैं। जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक बना कर विज्ञापित करता हो उसके लिए ‘मैं’ और अपने नाम का स्वयं ही इतना ऐसा प्रयोग असामान्य अहंकार ही माना जाएगा। शास्त्र आत्म-प्रशंसा को आत्महत्या कहते हैं। राम-रावण युद्ध और महाभारत में युद्ध के बीच अर्जुन-युधिष्ठिर टकराव को लेकर इसके बारे में रोचक कथा है।

    आध्यात्मिक व्यक्ति स्वयं को छिपाता है। हर संभव वस्तु और अवसर पर अपनी ही छवि देखने-दिखाने का विराट आत्ममोह नहीं दिखाता। आत्मगोपन, मौन, एकांतप्रियता आध्यात्मिक व्यक्ति के सहज लक्षण हैं।

    इसे भी पढ़ें ⇒लड़कियों को आत्मरक्षा के गुर सिखातीं आरती सैनी

    गीता (अध्याय 14, श्लोक 10) में श्रीकृष्ण भक्त के लक्षण बताते हैं, …विविक्तदेशसेवित्वम अरतिर्जनसंसदि।
    (एकान्त और निर्जन शुद्ध स्थान पर रहना और लोगों की भीड़ में अ-रति यानी विरक्ति)
    अध्यात्म और शक्तिलिप्सा परस्पर विरोधी हैं। राजसत्ता की ऐसी लपलपाती प्रबल पिपासा से भरा व्यक्ति आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता। उसका आध्यात्मिक होने का प्रदर्शन करना शुद्ध नाटक है, लोगों को प्रभावित करने का एक तरीका। हां वह सतही तौर पर आस्थावान जरूर होगा। आध्यात्मिक व्यक्ति इतना वैभव-प्रिय, अपने वस्त्रों अपनी छवि को लेकर इतना सावधान नहीं होता।

    आध्यात्मिक राजनीतिज्ञ आज के समय में कैसा होगा यह देखना हो तो गांधी को देखिए। विनोबा, श्री अरविन्द, राजर्षि कहे गए पुरुषोत्तम दास टंडन को देखिए। इतनी दूर न जाना हो तो कर्पूरी ठाकुर को देखिए। गांधीवादियों, पुराने कांग्रेसियों, समाजवादियों, कम्युनिस्टों के साथ-साथ जनसंघ-भाजपा-संघ के अनगिनत वरिष्ठ लोगों को देखिए। मोहन भागवत को देखिए। उनकी सर्वांगीण सादगी देखिए और तुलना कीजिए। पुराने प्रधानमंत्रियों को ही देख लीजिए। सब ठीकठाक रहते-दिखते थे। शांतिनिकेतन में गुरुदेव की छत्रछाया में पढ़ीं इंदिरा जी तो अपनी सुरुचि और कलाप्रियता के लिए प्रसिद्ध थीं। लेकिन इनमें कोई अपने ‘दिखने’ को लेकर इतने ङ्मु२ी२२्र५ी नहीं था। राजेन्द्र बाबू ने तो खैर राष्ट्रपति भवन में जैसा सादा जीवन बिताया वह कहानी बन गया। कलाम साहब की सहजता-सरलता किंवदंती बन गई। नई किंवदंती किस बात की बनेगी?

    यह सब इसलिए कि एक व्यक्ति की चरम आत्मकेंद्रिकता हम देख सकें। यह केवल दिखने-दिखाने, छवि का ही मामला होता तो चल जाता। यह मनोविज्ञान जब शक्ति और सत्ता के शिखर पर सक्रिय होता है तो सत्ता की शैली और समूचे आचरण की संस्कृति बन जाता है। तब सत्तासीन व्यक्ति अपनी ओर देखने वाली हर आंख में भक्ति-समर्पण-कातरता-भय-प्रशंसा-स्तुति देखना चाहता है। उनका अभ्यस्त हो जाता है। एक सहज समानता और स्वाभिमान के साथ देखती आँखें और भंगिमा उसे अस्तव्यस्त और विचलित करती हैं। क्रुद्ध करती हैं। ऐसी आंखें, ऐसी बातें दंड पाती हैं। तब असहमति अपराध बन जाती है। विरोध शत्रुता की तरह लिया जाता है। दोनों दबाए जाते हैं। संवाद असंभव हो जाता है। प्रश्न धृष्टता बन जाते हैं। अधिकारों की माँग चुनौती की उद्दंडता की तरह देखी जाती है। ऐसा शासक अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों तक को अपने से नीचे कक्षा के विद्यार्थियों की तरह बिठाता है। उन्हें खड़े होकर अपना रिपोर्टकार्ड पेश करना पड़ता है। उन्हें डांट पड़ती है। मंत्रिमंडल की बैठकों में खुली, निर्भय मंत्रणा और संवाद नहीं होता। एक या दो बोलते हैं। बाकी सुनते हैं। विदेहराज जनक की तरह ज्ञानी, स्थितप्रज्ञ विरक्त राजा पौराणिक कथाओं में ही मिलते हैं। हर देश को शासक की जरूरत होती है। राज्य व्यवस्था का विकल्प अराजकता है। व्यवस्था अनुशासन माँगती है। नियमों-मयार्दाओं का पालन माँगती है। और शासक विरक्त सन्यासी नहीं हो सकता।

    आस्था और आध्यात्मिकता अलग हैं। ९५% व्यक्ति किसी न किसी परंपरा में किसी न किसी ईश्वर-देवता-शक्ति-इष्ट के प्रति आस्थावान होते हैं। उनमें आध्यात्मिक .५% भी हों तो बड़ी बात है।

    इसलिए जहाँ भी खुद को एक साथ चक्रवर्ती सम्राट और अध्यात्ममार्ग पथिक दिखाने का प्रयास दिखे समझ जाइए कि आपको मूर्ख बनाया जा रहा है। सावधान हो जाइए। जहाँ ‘मैं’ की अति दिखे, सावधान हो जाइए। अपने मैं के प्रति भी सजग रहिए दूसरों के भी।

    # Politician #era man #social unity
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